भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अब किसी मोड़ पे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
तुम्हें पाने को बढ़ें
 
तुम्हें पाने को बढ़ें
 
फिर हम सूली चढ़ें।
 
फिर हम सूली चढ़ें।
 +
35
 +
धरा किसी की
 +
गगन किसी का
 +
हमने लूटे
 +
ये क्रुद्ध हुए जब
 +
दर्प सभी का टूटा ।
 +
36
 +
बालू की भीत
 +
ठहरा तू मानव
 +
दर्प छोड़ दे
 +
रुष्ट है पूरी सृष्टि
 +
ढहेगा  दो पल में।
 +
37
 +
घर पराया
 +
तूने माना अपना
 +
जीभर लूटा
 +
लगी एक ठोकर
 +
गर्व खर्व हो गया।
 
   
 
   
 
<poem>
 
<poem>

12:05, 8 नवम्बर 2020 के समय का अवतरण

31
सिरा आए हैं
सब नेह के नाते
मीठी वे बातें
जो दिल में बसी थीं
निकलीं सिर्फ धोखा।
32
बरस बीते
पथ में मिल गए
अपने लगे
कल जब वे छूटे
टूटे सपने लगे ।
33
पीर-सी जगी
सुधियाँ वे पुरानी
याद आ गईं
साँझ रूठी आज की
झाँझ- सी बजा गई।
34
मिलना नहीं
अब किसी मोड़ पे
डर है हमें
तुम्हें पाने को बढ़ें
फिर हम सूली चढ़ें।
35
धरा किसी की
गगन किसी का
हमने लूटे
ये क्रुद्ध हुए जब
दर्प सभी का टूटा ।
36
बालू की भीत
ठहरा तू मानव
दर्प छोड़ दे
रुष्ट है पूरी सृष्टि
ढहेगा दो पल में।
37
घर पराया
तूने माना अपना
जीभर लूटा
लगी एक ठोकर
गर्व खर्व हो गया।