भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बाँसुरी अष्टक / सुधा गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
तूने अधर धरी
 
तूने अधर धरी
 
सुरों की धार बही
 
सुरों की धार बही
 
बाँस की पोरी
 
निकम्मी, खोखल में
 
बेसुरी, कोरी
 
तूने फूँक जो भरी
 
बन गई ‘बाँसुरी’
 
  
 
कोई न गुन
 
कोई न गुन
पंक्ति 30: पंक्ति 24:
 
दौड़ पड़ गोपियाँ
 
दौड़ पड़ गोपियाँ
 
उफनी है कालिन्दी
 
उफनी है कालिन्दी
 
तेरा ही जादू
 
दूध पीना भूला है
 
गैया का छौना
 
चित्र-से मोर, शुक
 
कैसा ये किया टोना
 
  
 
गोपी का नेह
 
गोपी का नेह

14:57, 4 दिसम्बर 2020 के समय का अवतरण


सुनो जी कान्हा!
सात छेद वाली मैं
खाली ही ख़ाली
तूने अधर धरी
सुरों की धार बही

कोई न गुन
दो टके का न तन
तूने छू दिया
कान्हा! निकली धुन
लो, मैं ‘नौ लखी’ हुई

छम से बजी
राधिका की पायल
सुन के धुन
दौड़ पड़ गोपियाँ
उफनी है कालिन्दी

गोपी का नेह
अनूठा, निराला है
सास के ताने
पति-शिशु का मोह
छोड़ जाने वाला है

आज भी कान्हा
बजा रहे बाँसुरी
निधि-वन में
लोक-लाज छोड़ के
दौड़ी राधा बावरी