भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग / राज़िक़ अंसारी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> अन्दर अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
05:30, 18 दिसम्बर 2020 के समय का अवतरण
अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग
आदतन बन संवर रहे हैं लोग
ख़ौफ़ रस्तों पे इतना बिखरा है
एक दूजे से डर रहे हैं लोग
मेरे घर के दिए बुझाने को
कान आंधी के भर रहे लोग
हद मे रहने की क्या क़सम खाई
अपनी हद से गुज़र रहे हैं लोग
बात इधर की उधर लगाने में
कुछ इधर कुछ उधर रहे हैं लोग
एक उंचे मुक़ाम की ख़ातिर
कितना नीचे उतर रहे हैं लोग