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"ओह! जिन्दगी / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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देनी है तुम्हें
गुरु-दक्षिणा कुछ
ओह! जिन्दगी
पाठशाला के बिन
सिखाया मुझे
गिर के सँभलना।
मुखौटे सभी
तुमने तो उतारे
जब भी किए
दुःख ने पन्नों पर
गहरे हस्ताक्षर।