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पिंजरे में रहने वाले पक्षियों ने सदा
आसमानी गीत गाये
मरुस्थल मन ने खुद पर उगाये हरे सपनें
जितनी बार दूध में केसर डाला
खिल गई चम्पा स्मृति के आले पर
आलता लगे पाँव नृत्यरत दीखे
गुड़हल के हरे दामन पर
पीड़ा विष की पर्यायवाची रही
दोनों का अनुवाद नीला था
किसी अकुलाहट में गेंदे की पंखुड़ियाँ
बिखेरती गई उँगलियाँ
एक जगह थिर दृष्टि में
जाने क्या क्या तैर रहा था
हर पंखुड़ी संभाले हुए थी
बीज की थाती अपने साथ
पीली पंखुड़ियाँ पीली मिट्टी पीला पतझड़
सब मिलकर हो जाने हैं सप्तवर्णी बसंत
सच ही तो है
रंग बदलते कोई देर लगती है भला