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{{KKRachna
|रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति
|संग्रह=शब्द लिखने के लिए ही यह कागज़ बना है / ज्ञानेन्द्रपति
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{{KKPrasiddhRachna}}{{KKAnthologyLove}}{{KKCatKavita‎}}{{KKVID|v=-dc0D9In5_w}}<poem>चेतना पारीक कैसी हो ?पहले जैसी हो ?कुछ-कुछ खुशख़ुुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?अब भी कविता लिखती हो ?
तुम्हे तुम्हें मेरी याद तो न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कदक़द-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो ?पहले जैसी हो ?आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?नाटक में अब भी लेती हो भाग ?छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?मुझ-से घुमंतू घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर ?अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?उतनी ही हरी हो ?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कण्ठ कम हैतुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली ख़ााली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों क़िताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?</poem>
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