लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल]]}}{{KKAnthologyBasant}}{{KKCatKavita}}{{KKPrasiddhRachna}}{{KKVID|v=crefxJPmqP0}}<poem>हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*वही हाँ, वही जो युगों से गगन कोबिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हैहवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो धरा की बसंतीसुसंगीत मीठा गुंजाती फिरी हूँहवा हूँ, हवा , मैं<br>बसंती हवा हूँ।<br><br>हूँ
सुनो बात मेरी वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों कोपिला प्रेम-<br>आसन जिलाए हुई हूँअनोखी हवा हूँ।<br>बड़ी बावली हूँ,<br>बड़ी मस्त्मौला।<br>नहीं कुछ फिकर है,<br>बड़ी ही निडर हूँ।<br>जिधर चाहती हवा मैं बसंती हवा हूँ,<br>उधर घूमती हूँ,<br>मुसाफिर अजब हूँ।<br><br>
न घर-बार मेराकसम रूप की है,<br>न उद्देश्य मेरा,<br>न इच्छा किसी कसम प्रेम की,<br>हैन आशा किसी कसम इस हृदय की,<br>न प्रेमी न दुश्मन,<br>जिधर चाहती हूँ<br>उधर घूमती हूँ।<br>सुनो बात मेरी--अनोखी हवा हूँ, हवा मैं<br>बसंती हवा बड़ी बावली हूँ!<br><br>
जहाँ से चली मैं<br>बड़ी मस्तमौला। नजहाँ को गई मैं -<br>शहर, गाँव, बस्तीहीं कुछ फिकर है,<br>नदी, रेत, निर्जन,<br>बड़ी ही निडर हूँ। हरे खेतजिधर चाहती हूँ, पोखर,<br>झुलाती चली मैं।<br>झुमाती चली मैं!<br>हवा उधर घूमती हूँ, हवा मै<br>बसंती हवा मुसाफिर अजब हूँ।<br><br>
चढ़ी पेड़ महुआन घर-बार मेरा,<br>थपाथप मचाया;<br>गिरी धम्म से फिरन उद्देश्य मेरा,<br>चढ़ी आम ऊपरन इच्छा किसी की,<br>उसे भी झकोरान आशा किसी की,<br>किया कान में 'कू'न प्रेमी न दुश्मन,<br>उतरकर भगी मैं,<br>हरे खेत पहुँची -<br>जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।वहाँहवा हूँ, गेंहुँओं में<br>लहर खूब मारी।<br><br>हवा मैं बसंती हवा हूँ!
पहर दो पहर क्या,<br>अनेकों पहर तक<br>इसी में रही जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं!<br>खड़ी देख अलसी<br>लिए शीश कलसी,<br>मुझे खूब सूझी -<br>हिलाया-झुलाया<br>गिरी पर न कलसी!<br>इसी हार को पाशहर,<br>हिलाई न सरसोंगाँव, बस्ती,<br>झुलाई न सरसोंनदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,<br>झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!हवा हूँ, हवा मैं<br>मै बसंती हवा हूँ!<br><br>हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया;गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची -वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी। पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तकइसी में रही मैं!खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,मुझे खूब सूझी -हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!इसी हार को पा,हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,मज़ा आ गया तब,न सुधबुध रही कुछ,बसंती नवेली भरे गात में थीहवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! मुझे देखते ही<br>अरहरी लजाई,<br>मनाया-बनाया,<br>न मानी, न मानी;<br>उसे भी न छोड़ा -<br>पथिक आ रहा था,<br>उसी पर ढकेला;<br>हँसी ज़ोर से मैं,<br>हँसी सब दिशाएँ,<br>हँसे लहलहाते<br>हरे खेत सारे,<br>हँसी चमचमाती<br>भरी धूप प्यारी;<br>बसंती हवा में<br>हँसी सृष्टि सारी!<br>हवा हूँ, हवा मैं<br>बसंती हवा हूँ!<br><br/poem>