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झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,:: उड़ने लगी बुझे खेतों से:: झुर-झुर सरसों की रंगीनी,:: धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-—:: सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।:: साँस रोक कर खड़े हो गए:: लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,:: चिलबिल की नंगी बाँहों में:: भरने लगा एक खोयापन, बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।:: थक कर ठहर गई दुपहरिया, :: रुक कर सहम गई चौबाई,:: आँखों के इस वीराने में-—:: और चमकने लगी रुखाई, प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
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