भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पहला पानी / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
पहला पानी गिरा गगन से | पहला पानी गिरा गगन से | ||
− | + | उमड़ा आतुर प्यार, | |
− | हवा हुई, | + | हवा हुई, ठण्डे दिमाग के जैसे खुले विचार । |
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह, | भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह, | ||
भीगा अनभीगे अंगों की | भीगा अनभीगे अंगों की | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव, | प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव, | ||
भोग रहा है | भोग रहा है | ||
− | द्रवीभूत प्राकृत | + | द्रवीभूत प्राकृत आनन्द अतीव । |
− | रूप- | + | रूप-सिन्धु की |
लहरें उठती, | लहरें उठती, | ||
खुल-खुल जाते अंग, | खुल-खुल जाते अंग, |
00:57, 9 मार्च 2021 के समय का अवतरण
पहला पानी गिरा गगन से
उमड़ा आतुर प्यार,
हवा हुई, ठण्डे दिमाग के जैसे खुले विचार ।
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,
भीगा अनभीगे अंगों की
अमराई का नेह
पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,
भीगी-भीगी बल खाती है
गैल-छैल की चाल ।
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनन्द अतीव ।
रूप-सिन्धु की
लहरें उठती,
खुल-खुल जाते अंग,
परस-परस
घुल-मिल जाते हैं
उनके-मेरे रंग ।
नाच-नाच
उठती है दामिने
चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर
वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।
मैं भीगा,
मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,
भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान ।