भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अपनी पीढ़ी के नाम / मोहन अम्बर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन अम्बर |अनुवादक= |संग्रह=सुनो!...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:55, 14 मार्च 2021 के समय का अवतरण

हमसे पहले वाली पीढ़ी अपना फ़र्ज़ निभा गई,
और हमारी पीढ़ी यों ही इतनी उम्र बिता गई,

इससे बड़ा कलंक और क्या होगा युग के माथ पर?
सूरज सर पर आया लेकिन, हम न अभी तक जागते,
और जागने की बातों से सपनों तक मंे भागते,
प्यासे हैं हम फिर भी अब तक पानी नहीं तलाशते,

उल्टे झरियाँ मूँद रहे हैं हर प्यासे के वास्ते,
रोटी हम सब खाते लेकिन, माथा रखकर हाथ पर,

इससे बड़ा कलंक और क्या होगा युग के माथ पर।
सृजन पसीना करके लाता स्वर्ण बजार बटोरते,
भरी दुपहरी में यों उजले कपड़े मेहनत चोरते,
रक्त नींव में गिरता लेकिन, नहीं इमारत कर्म की,
 
और अकर्म दुहाई देता है इस पर भी धर्म की,
शोषण का दोषार्पण होता ऊपर वाले नाथ पर,

इससे बड़ा कलंक और क्या होगा युग के माथ पर?
व्यक्ति स्वार्थ का पक्ष प्रबल है सामाजिकता मौन है,
द्वार-द्वार पर झूठ पूछती सच का प्रहरी कौन है,
लूट तभी तो सीना ताने अपनी साख भुना रही,

गलती कानूनी पोषाकों में आदेश सुना रही,
इमारतों की इज़्ज़त रखने मत सोओ फुटपाथ पर,
इससे बड़ा कलंक और क्या होगा युग के माथ पर?