"हाइकु / भीकम सिंह / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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+ | 1 | ||
+ | देखता शून्य | ||
+ | ओढ़ के खलिहान | ||
+ | बूढ़ा किसान। | ||
+ | देखू आगास | ||
+ | ओढ़ि कैंईं खल्याण | ||
+ | बुड्या किसाण | ||
+ | 2 | ||
+ | फसलें सारी | ||
+ | खलिहानों में बैठी | ||
+ | गुस्से में ऐंठी। | ||
+ | सब्बि फसल | ||
+ | खल्याणु माँ बैठीं च | ||
+ | कोप माँ ऐंठी | ||
+ | 3 | ||
+ | चली खेतों में | ||
+ | मुँह फेरे पुरवा | ||
+ | रूठा बिरवा। | ||
+ | चली पुंग्ड़यों | ||
+ | मुक पलटू पुर्बा | ||
+ | रूसाईं बिर्वा | ||
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+ | कपास ने की | ||
+ | मुनादी, पककर | ||
+ | लो हुई, रूई। | ||
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+ | कबास न कै | ||
+ | मुनादी पकी कैंईँ | ||
+ | ल्या ह्वेगी रूँईँ | ||
+ | 5 | ||
+ | वर्षा के आते | ||
+ | बदलने लगे हैं | ||
+ | खेतों के खाते। | ||
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+ | बर्खा औंदुई | ||
+ | बदलण लगि गैनी | ||
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+ | सीधे सपने। | ||
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+ | पुंग्ड़योंन ब्वैं | ||
+ | टेरा सि बाठा परैं | ||
+ | सिद्धा सि स्वीणा | ||
+ | 7 | ||
+ | ओस-नहाई | ||
+ | फसलों की चमक | ||
+ | मंडी में खोई। | ||
+ | |||
+ | ओंसन नह्ये | ||
+ | फसलु कि रंगत | ||
+ | मण्डी माँ हर्चि | ||
+ | 8 | ||
+ | धुआँ लपेटे | ||
+ | हरे पेड़ों के तन | ||
+ | फाग में लेटे। | ||
+ | |||
+ | धुँवाँ भेंटुणु | ||
+ | हैरा डाळौं सरैल | ||
+ | फाग माँ ल्वट्याँ | ||
+ | 9 | ||
+ | प्रकृति बाँधे | ||
+ | फागुन में घुँघरू | ||
+ | और छमके। | ||
+ | |||
+ | पर्किर्ती बाँधू | ||
+ | फागुण माँ घुँघरू | ||
+ | अर छमकू | ||
+ | 10 | ||
+ | फाग के हाथ | ||
+ | रंग-पाश खोलते | ||
+ | पानी घोलते। | ||
+ | |||
+ | फाग का हत्थ | ||
+ | रंग-पास ख्वलदा | ||
+ | पाणी घ्वलदा | ||
+ | 11 | ||
+ | कोयल बैठी | ||
+ | कुहू-कुहू पुकारे | ||
+ | ताना ज्यों मारे। | ||
+ | |||
+ | कोयल बैठीं | ||
+ | कुउ कुउ भट्यौणी | ||
+ | जन सुणौणि | ||
+ | 12 | ||
+ | फाग में पाँखें | ||
+ | भौंरे ने खुजलाई | ||
+ | कली मुस्काई। | ||
+ | |||
+ | फाग-पँखर | ||
+ | भौंर न खुजलैई | ||
+ | कली मुस्कैई | ||
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19:48, 3 मई 2021 के समय का अवतरण
1
देखता शून्य
ओढ़ के खलिहान
बूढ़ा किसान।
देखू आगास
ओढ़ि कैंईं खल्याण
बुड्या किसाण
2
फसलें सारी
खलिहानों में बैठी
गुस्से में ऐंठी।
सब्बि फसल
खल्याणु माँ बैठीं च
कोप माँ ऐंठी
3
चली खेतों में
मुँह फेरे पुरवा
रूठा बिरवा।
चली पुंग्ड़यों
मुक पलटू पुर्बा
रूसाईं बिर्वा
4
कपास ने की
मुनादी, पककर
लो हुई, रूई।
कबास न कै
मुनादी पकी कैंईँ
ल्या ह्वेगी रूँईँ
5
वर्षा के आते
बदलने लगे हैं
खेतों के खाते।
बर्खा औंदुई
बदलण लगि गैनी
पुंग्ड़यों-खाता
6
खेतों ने बोए
टेढ़ी पगडंडी पे
सीधे सपने।
पुंग्ड़योंन ब्वैं
टेरा सि बाठा परैं
सिद्धा सि स्वीणा
7
ओस-नहाई
फसलों की चमक
मंडी में खोई।
ओंसन नह्ये
फसलु कि रंगत
मण्डी माँ हर्चि
8
धुआँ लपेटे
हरे पेड़ों के तन
फाग में लेटे।
धुँवाँ भेंटुणु
हैरा डाळौं सरैल
फाग माँ ल्वट्याँ
9
प्रकृति बाँधे
फागुन में घुँघरू
और छमके।
पर्किर्ती बाँधू
फागुण माँ घुँघरू
अर छमकू
10
फाग के हाथ
रंग-पाश खोलते
पानी घोलते।
फाग का हत्थ
रंग-पास ख्वलदा
पाणी घ्वलदा
11
कोयल बैठी
कुहू-कुहू पुकारे
ताना ज्यों मारे।
कोयल बैठीं
कुउ कुउ भट्यौणी
जन सुणौणि
12
फाग में पाँखें
भौंरे ने खुजलाई
कली मुस्काई।
फाग-पँखर
भौंर न खुजलैई
कली मुस्कैई