भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हाइकु / भीकम सिंह / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक=कविता भट्ट |संग्रह=पहाड...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=
+
|रचनाकार=भीकम सिंह
 
|अनुवादक=कविता भट्ट
 
|अनुवादक=कविता भट्ट
 
|संग्रह=पहाड़ी पर चंदा / कविता भट्ट
 
|संग्रह=पहाड़ी पर चंदा / कविता भट्ट
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
{{KKCatHaiku}}
 
{{KKCatHaiku}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
1
 +
देखता शून्य
 +
ओढ़ के खलिहान
 +
बूढ़ा किसान।
  
 +
देखू आगास
 +
ओढ़ि कैंईं खल्याण
 +
बुड्या किसाण
 +
2
 +
फसलें सारी
 +
खलिहानों में बैठी
 +
गुस्से में ऐंठी।
  
 +
सब्बि फसल
 +
खल्याणु माँ बैठीं च
 +
कोप माँ ऐंठी
 +
3
 +
चली खेतों में
 +
मुँह फेरे पुरवा
 +
रूठा बिरवा।
  
 +
चली पुंग्ड़यों
 +
मुक पलटू पुर्बा
 +
रूसाईं बिर्वा
 +
4
 +
कपास ने की
 +
मुनादी, पककर
 +
लो हुई, रूई।
 +
 +
कबास न कै
 +
मुनादी पकी कैंईँ
 +
ल्या ह्वेगी रूँईँ
 +
5
 +
वर्षा के आते
 +
बदलने लगे हैं
 +
खेतों के खाते।
 +
 +
बर्खा औंदुई
 +
बदलण लगि गैनी
 +
पुंग्ड़यों-खाता
 +
6
 +
खेतों ने बोए
 +
टेढ़ी पगडंडी पे
 +
सीधे सपने।
 +
 +
पुंग्ड़योंन ब्वैं
 +
टेरा सि बाठा परैं
 +
सिद्धा सि स्वीणा
 +
7
 +
ओस-नहाई
 +
फसलों की चमक
 +
मंडी में खोई।
 +
 +
ओंसन नह्ये
 +
फसलु कि रंगत
 +
मण्डी माँ हर्चि
 +
8
 +
धुआँ लपेटे
 +
हरे पेड़ों के तन
 +
फाग में लेटे।
 +
 +
धुँवाँ भेंटुणु
 +
हैरा डाळौं सरैल
 +
फाग माँ ल्वट्याँ
 +
9
 +
प्रकृति बाँधे
 +
फागुन में घुँघरू
 +
और छमके।
 +
 +
पर्किर्ती बाँधू
 +
फागुण माँ घुँघरू
 +
अर छमकू
 +
10
 +
फाग के हाथ
 +
रंग-पाश खोलते
 +
पानी घोलते।
 +
 +
फाग का हत्थ
 +
रंग-पास ख्वलदा
 +
पाणी घ्वलदा
 +
11
 +
कोयल बैठी
 +
कुहू-कुहू पुकारे
 +
ताना ज्यों मारे।
 +
 +
कोयल बैठीं
 +
कुउ कुउ भट्यौणी
 +
जन सुणौणि
 +
12
 +
फाग में पाँखें
 +
भौंरे ने खुजलाई
 +
कली मुस्काई।
 +
 +
फाग-पँखर
 +
भौंर न खुजलैई
 +
कली मुस्कैई
 
</poem>
 
</poem>

19:48, 3 मई 2021 के समय का अवतरण

1
देखता शून्य
ओढ़ के खलिहान
बूढ़ा किसान।

देखू आगास
ओढ़ि कैंईं खल्याण
बुड्या किसाण
2
फसलें सारी
खलिहानों में बैठी
गुस्से में ऐंठी।

सब्बि फसल
खल्याणु माँ बैठीं च
कोप माँ ऐंठी
3
चली खेतों में
मुँह फेरे पुरवा
रूठा बिरवा।

चली पुंग्ड़यों
मुक पलटू पुर्बा
रूसाईं बिर्वा
4
कपास ने की
मुनादी, पककर
लो हुई, रूई।

कबास न कै
मुनादी पकी कैंईँ
ल्या ह्वेगी रूँईँ
5
वर्षा के आते
बदलने लगे हैं
खेतों के खाते।

बर्खा औंदुई
बदलण लगि गैनी
पुंग्ड़यों-खाता
6
खेतों ने बोए
टेढ़ी पगडंडी पे
सीधे सपने।

पुंग्ड़योंन ब्वैं
टेरा सि बाठा परैं
सिद्धा सि स्वीणा
7
ओस-नहाई
फसलों की चमक
मंडी में खोई।

ओंसन नह्ये
फसलु कि रंगत
मण्डी माँ हर्चि
8
धुआँ लपेटे
हरे पेड़ों के तन
फाग में लेटे।

धुँवाँ भेंटुणु
हैरा डाळौं सरैल
फाग माँ ल्वट्याँ
9
प्रकृति बाँधे
फागुन में घुँघरू
और छमके।

पर्किर्ती बाँधू
फागुण माँ घुँघरू
अर छमकू
10
फाग के हाथ
रंग-पाश खोलते
पानी घोलते।

फाग का हत्थ
रंग-पास ख्वलदा
पाणी घ्वलदा
11
कोयल बैठी
कुहू-कुहू पुकारे
ताना ज्यों मारे।

कोयल बैठीं
कुउ कुउ भट्यौणी
जन सुणौणि
12
फाग में पाँखें
भौंरे ने खुजलाई
कली मुस्काई।

फाग-पँखर
भौंर न खुजलैई
कली मुस्कैई