भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"न कोई तीर है पंछी, न कोई जाल रक्खा है / विजय कुमार स्वर्णकार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= विजय कुमार स्वर्णकार }} {{KKCatGhazal}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

05:48, 16 मई 2021 का अवतरण

न कोई तीर है पंछी, न कोई जाल रक्खा है
ज़रा-सा पुण्य पाने को ये दाना डाल रक्खा है

तुम अपनी बात छेड़ो और तुम्हार थाह पा लेंगे
हमें पुरखों ने हर दर्शन से माला-माल रक्खा है

अँधेरो! जब गगन में सूर्य चमकेगा तो क्या होगा
तुम्हें दरपण दिखाने को ये दीपक बाल रक्खा है

तुम्हारी नर्मियाँ मौजूद हैं आँगन के फूलों में
तुम्हारी गर्मियों से गर्म, घर में, शॉल रक्खा है

दुआ देती हुई लगती हैं ये फूलों की मुस्कानें
जिये वह सौ बरस जिसने हमें ख़ुशहाल रक्खा है