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"मेरे बचपन की जेल / विवेक चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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18:27, 27 मई 2021 के समय का अवतरण

मेरा बचपन एक जेल में बीता
जिसके दरवाजे़ से बहनें मुझे
रोज़ ढकेल देती थीं भीतर
और निष्ठुर और कठोर ‘ना’ लिए
खड़े रहते थे पिता
हम सबको भीतर कर
अल सुबह बन्द होते जेल के उस हाथी दरवाज़े की
किर्रर......आज तक मेरे भीतर गूँजती है
क्या कुछ नहीं बन्द और ख़त्म हुआ उस दरवाजे़ के साथ

जेल में एक सी वर्दी पहने
उनींदी आँखों और थके पैरों वाले
हम नए-पुराने क़ैदी
एक सफ़े में खड़े किए जाते
जेलरों का चहेता एक पुराना क़ैदी
हमसे दुहरवाता था एक फ़रेबी प्रार्थना
जिसके लफ़्ज़ों के मानी का वहाँ
किसी को भी यक़ीन न था

फुदकती गौरैयाँ, उगता सूरज
गाय का नवजात बछड़ा
पुराने टायर से बनी
शानदार गाड़ी, पतंग, गुलाबी नींद,
घर के आँगन की रेशमी सुबह
ये सब बस्ते में क़ैद हो जाने से
उपजी छटपटाहट में
कैसा गूँगा दुख था
जिसे मैं...जी भर कर रो भी न सका

मेरे आँसू भीतर उमगे
वो जहाँ-जहाँ बहे वहाँ
खारे निशान वाली धारियाँ छिल गईं
उनका नमक आज तक मेरी चेतना को छरछराता है

हमें बैरकों में ठूँसा जाता था
रटाया जाता था कामुक
और वहशी राजाओं का इतिहास
डरावना और बेखुर्द विज्ञान, बेबूझ गणित
अपने काम और हालात से हुए चिड़चिड़े जेलर
हमारी नर्म खूँटियों पर
अपना भारी अभिमान टाँगते
थुलथुल हठी जेलर

काले धूसर तख़्ते पर हमें
दिखाए जाते ज्यामितीय आकार
उन त्रिभुजों के कोने
हमारी चेतना में धँस जाते
वो चाहते थे हम बनें
याद रखने की उम्दा मशीन
हमारे पाठ में कुछ
कविताएँ भी थीं कुछ कहानियाँ
जो उन जेलरों के हाथ
पड़ कर नीरस हो जातीं

बैरक की अधखुली खिड़की से
मैं देखा करता
हवा में गोता लगाते
डोम कौए
बैरक के छप्पर में
आज़ाद फिरते चमगादड़

रोज़ शाम मैं पैरोल पर छूटता था
और मोहल्ले की धूल भरी सड़कों पर खेलने में
भूल जाता था कि मैं क़ैदी हूँ
पर जब रात गहराती
सुबह सात बजे की सूली छेदने लगती
घर की दीवाल में जो पुरानी घड़ी थी
सुबह सात बजाने के लिए उसकी गति
इतनी तेज़ क्यों थी
नारंगी सपनों को रौंदता
समय का काला घोड़ा क्यों भागता था सरपट
घड़ी के उन काँटों को सुबह सात बजे तक जाने से रोकने
अधूरी नींद के ख़्वाब में
उन पर हाथ की उँगलियों
के बल मैं लटक जाता था

तब घड़ी के काँटे हो जाते चाकू जैसे संगलाख
कितनी-कितनी रातें
कितनी-कितनी बार
मैं उन काँटों को रोकने लटका
कितनी-कितनी बार मेरी उँगलियाँ
कट कर घड़ी के डायल से चिपक गईं

अब जब कभी मैं चाहता हूँ
बनाना एक छोटी चिड़िया का चित्र
लिखना एक मुलायम सा गीत
तब मालूम होता है मुझे मेरी उँगलियाँ नहीं हैं
चील बन अवसर के मुद्दों से
उपलब्धियों का मांस नोचने
नाख़ून तो है
पर वो उँगलियाँ नहीं हैं
जो किसी सिर को सहलाती हैं
सितार बजाती हैं

उस सीलन भरी जेल में
कुछ पुराने क़ैदी थे
जो ना मालूम कैसे
बहुत ख़ुश रहने का हुनर
सीख चुके थे
और हमें भी ख़ुश रहने के लिए धमकाये जाने
वार्डन की तरह मुस्तैद थे
हम क़ैदियों को नीरस और उबाऊ पाठ
याद करने की सज़ाएँ मुकर्रर थीं
हमें थी भिन्न हमें कड़वा बीज गणित था
अप्रिय तेज़ गन्ध वाले रसायन थे
कभी हाथ न आने वाली भौतिकी थी

कभी-कभी सबसे बड़ा
उस जेल का सबसे बड़ा अधिपति
जेलर हमसे मिलने आता
तब हमें बैरकों से
मैदान में खदेड़ा जाता
कँकड़ बिछे उस मैदान
की धूप में हम सफ़े में बैठाए जाते
बड़ा जेलर हमें सिखाता अच्छा क़ैदी बनने के गुर
उसकी बात जेल का नाम रौशन
करने से शुरू होती और ख़त्म

ये अँधेरी सुरंग जैसे कभी
न ख़त्म होने वाले
जेल के दुख को काटने कई बार
मैंने ज़िन्दगी को भी काटना चाहा
पर हम छोटे थे
हमें नहीं मालूम थे
ख़ुद को ख़त्म करने के बहुत कामयाब रास्ते
थर्मामीटर तोड़ पारा गुटकने के
कभी उस जेल के पिछवाड़े बने
पुराने कुएँ में छलाँग के
कभी उस जेल की सबसे ऊँची
छत से गिर जाने के
सुने हुए रास्ते थे
पर हमको घर में
या उस जेल में
मरना सिखाया नहीं गया था
जैसे कि जीना भी नहीं सिखाया गया था
सो हम मर भी न सके

हाँ...हमको जो रोज़-रोज़
जेल तक छोड़ते थे वो गाड़ीवान
खालिस और सच्चे आदमी थे
बीड़ी पीने वाले
रिक्शों के ख़ाली पाइप में गुल्लक बना
दस-बीस पैसे के सिक्के जोड़ने वाले
हमारे आसपास तब जो भी लोग थे
उनमें से यही थे जो हमारा दुख समझते थे
और उस दुख को कम करने
कभी-कभी कुल्फ़ी खिलाते थे
वो ख़ूब ज़िन्दादिल लोग थे
जो बचपन में कभी जेल नहीं गए थे
ग़रीब और फटेहाल
गमछे बण्डी वाले
हंसने-खांसने वाले
चेचक के दाग वाले
साँवले चेहरे ख़ूब याद हैं

बरस-दर-बरस बिता
जब मैं उस जेल से निकला
तो एक अदृश्य टाई मेरे गले
में कस गई
प्लास्टिक की एक नक़ली
मुस्कुराहट जड़ गई मेरे होंठों पर
जो कितना भी दुख हो
पिघलती नहीं थी
अब मैं एक छँटा हुआ शरीफ़ था
एक रोबोट
अब मैं आसानी से चूस सकता था किसी का ख़ून
चालाकियों की परखनली के रसायन को पढ़ना
मैं ख़ूब जान चुका था
यहाँ तक कि वो ख़तरनाक रसायन
बनाना भी मैं सीख चुका था
जो जो मैं भगवान के घर से सीखकर आया था
वो सब भुलाया गया मुझे उस जेल में
सभी नदियाँ वहाँ सुखाई गईं
सभी जंगल जलाए गए
सभी पक्षी चुप कराए गए
सभी पहाड़ बौने किये गये
मेरे भीतर जो भी मुलायम बना
वो सब खुरदुरा किया गया

आज बरसों के बाद
मैं उस जेल के सामने
फिर आकर खड़ा हूँ

देखता हूँ
जेल की इमारत कुछ और
रंगीन हो गई है
जैसे कि कभी ज़हर रंगीन होता है
मेरी देह एक डायनामाइट हो गई है
वो बचपन की जेल
जो मेरी शिराओं तक में दौड़ गई है
उसको उड़ाना चाहता हूँ
पर शीशे की तरह पिघलकर
ये जेल जो मेरे ख़ून में बह रही है
मैं इसको निकाल नहीं सकता
ये मेरा सच है जिसे मैं
बचपन से अब तक ढोता हूँ
जब भी मेरे भीतर कुछ उपजता है सच्चा और क्वारा
मेरा ख़ून ही उसको धो डालता है
मैं इस जेल को बार-बार ना...कहना चाहता हूँ
मैं इस अन्धी सुरंग को
ना...कहना चाहता हूँ
मैं बचपन के स्कूल को
इस जेल को
ना...कहना चाहता हूँ ।।