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{{KKRachna
|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
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<poem>
आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।
आज शाम है बहुत उदास<br>दूर कहीं पर हास-विलासकेवल मैं हूँ अपने पास दूर कहीं उत्सव-उल्लासदूर छिटक कर कहीं खो गयामेरा चिर-संचित विश्वास <br><br>
दूर कहीं पर हास-विलास<br>कुछ भूला सा और भ्रमा सा दूर कहीं उत्सव-उल्लास<br>केवल मैं हूँ अपने पास दूर छिटक कर कहीं खो गया<br>एक धुन्ध में कुछ सहमी सीमेरा चिर-संचित विश्वास आज शाम है बहुत उदास <br><br>
कुछ भूला सा और भ्रमा सा<br>एकाकीपन का एकान्तकेवल मैं हूँ अपने पास<br>एक धुंध में कुछ सहमी सी<br>आज शाम है बहुत उदास कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त <br><br>
एकाकीपन का एकांत<br>थकी-थकी सी मेरी साँसें कितना निष्प्रभपवन घुटन से भरा अशान्त, कितना क्लांत ऐसा लगता अवरोधों से यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त <br><br>
थकीअंधकार में खोया-थकी सी मेरी साँसें<br>खोया पवन घुटन से भरा अशान्त,<br>एकाकीपन का एकान्त ऐसा लगता अवरोधों से<br>मेरे आगे जो कुछ भी वहयह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त <br><br>
अंधकार में खोया-खोया<br>एकाकीपन उतर रहा तम का एकांत<br>अम्बार मेरे आगे जो कुछ भी वह<br>कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत मन में व्यथा अपार <br><br>
उतर रहा तम आदि-अन्त की सीमाओं में काल अवधि का अम्बार<br>यह विस्तार मेरे मन में व्यथा अपार क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर ? एक प्रश्न मैं हूँ साकार <br><br>
आदि-अन्त की सीमाओं में<br>काल अवधि का यह विस्तार<br>क्या कारणक्यों बनना? क्या कार्य यहाँ परक्यों बनकर मिटना ?<br>एक प्रशन मैं हूँ साकार मेरे मन में व्यथा अपार औ समेटता निज में सब कुछ उतर रहा तम का अम्बार <br><br>
क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?<br>सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास, मेरे मन में व्यथा अपार<br>औ समेटता निज में सब कुछ<br>उतर रहा तम का अम्बार आज शाम है बहुत उदास <br><br>
सौजोकि आज था तोड़ रहा वह बुझी-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,<br>बुझी सी अन्तिम साँसआज शाम और अनिश्चित कल में ही है बहुत उदास मेरी आस्था, मेरी आस <br><br>
जोकि आज था तोड़ रहा वह<br>बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस<br>और अनिश्चित कल में ही है<br>मेरी आस्था, मेरी आस ।<br><br> जीवन रेंग रहा है लेकर<br>सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,<br>और डूबती हुई अमा में<br>आज शाम है बहुत उदास ।<br><br/poem>
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