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"कहाँ जी पाते हैं ख़ुद से मसाफ़त जिनके मन में है / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'" के अवतरणों में अंतर
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कहाँ जी पाते हैं ख़ुद से , अदावत जिनके मन में है ,
वो अपने भी नहीं होते , सियासत जिनके मन में है ।
हमें तो इश्क़ है , हम तो उसी के दर पे बैठेंगे ,
वो बुतख़ाने चले जाएँ , इबादत जिनके मन में है ।
मुहबबत से ही निकला है , मुदावा जब कभी निकला ,
कहाँ हल काेई दे पाते , तिजारत जिनके मन में है ।
हुकूमत की अटारी पर , धरम - ईमान गिरवी रख ,
सिंहासन पर वही बैठे कि नफ़रत जिनके मन में है ।
ये किस अलगाव की बच्चाें काे ही पट्टी पढ़ा डाली ,
वो उनके क्यों न हो जाएँ , बग़ावत जिनके मन में है ।
‘शलभ’ का इश्क़ देखो और ये दीवानगी देखो ,
उन्हीं के मन में जा बैठा , मसाफ़त जिनके मन में है ।