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"ये मुमकिन है कि मुझसे कुछ तो वो रूठा हुआ होगा / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'" के अवतरणों में अंतर
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− | ये मुमकिन है कि | + | ये मुमकिन है कि मुझसे कुछ तो वो रूठा हुआ होगा |
− | मगर बिछड़े जहाँ | + | मगर बिछड़े जहाँ थे हम, वहीं ठहरा हुआ होगा |
− | मुझे नीचा दिखाने की | + | मुझे नीचा दिखाने की न ताक़त दुश्मनों में थी |
− | ये लगता है, मेरे अपनों | + | ये लगता है, मेरे अपनों से, कुछ सौदा हुआ होगा |
उसी का राज़े-पिन्हां खुल गया होगा अचानक ही | उसी का राज़े-पिन्हां खुल गया होगा अचानक ही | ||
− | नहीं तो क्यों फिर उसका ज़ाइक़ा कड़वा | + | नहीं तो क्यों फिर उसका ज़ाइक़ा कड़वा हुआ होगा |
− | सिकंदर से हमें ये सीख, | + | सिकंदर से हमें ये सीख, आख़िर क्यों नहीं मिलती |
जो जग को जीतता है, ख़ुद से वो हारा हुआ होगा | जो जग को जीतता है, ख़ुद से वो हारा हुआ होगा | ||
तुम अपने सत्य को, ढूँढ़ो ‘शलभ‘ अब मन के सागर में | तुम अपने सत्य को, ढूँढ़ो ‘शलभ‘ अब मन के सागर में | ||
− | ये मानो या न | + | ये मानो या न मानो, वो वहीं डूबा हुआ होगा |
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07:47, 27 नवम्बर 2021 के समय का अवतरण
ये मुमकिन है कि मुझसे कुछ तो वो रूठा हुआ होगा
मगर बिछड़े जहाँ थे हम, वहीं ठहरा हुआ होगा
मुझे नीचा दिखाने की न ताक़त दुश्मनों में थी
ये लगता है, मेरे अपनों से, कुछ सौदा हुआ होगा
उसी का राज़े-पिन्हां खुल गया होगा अचानक ही
नहीं तो क्यों फिर उसका ज़ाइक़ा कड़वा हुआ होगा
सिकंदर से हमें ये सीख, आख़िर क्यों नहीं मिलती
जो जग को जीतता है, ख़ुद से वो हारा हुआ होगा
तुम अपने सत्य को, ढूँढ़ो ‘शलभ‘ अब मन के सागर में
ये मानो या न मानो, वो वहीं डूबा हुआ होगा