भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बंद होने से ही लाखों की हुई / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ' |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
08:03, 27 नवम्बर 2021 के समय का अवतरण
बंद हाेने से ही लाखाें की हुई ,
खुल गई ताे फिर कहाँ मुट्ठी हुई ।
चीख़ती है ख़्वाहिशें शमशान में ,
इस क़दर रुस्वा काेई मिट्टी हुई ।
जूतियाें की नाेक पर रख - रख के ही ,
उनकी पेशानी है यूँ चमकी हुई ।
अब कहाँ सच बाेलता है आईना ,
इसलिए उससे मेरी कुट्टी हुई ।
हम सभी कठपुतलियाँ हैं नाचतीं ,
है हुकूमत की नज़र हँसती हुई ।
जाने किसकाे साैंप दे ईमान अब ,
है अना अपनी कहीं भटकी हुई ।
जब मरेगा तू ‘शलभ’ देखेंगे सब ,
लाश ट्विटर पे तेरी जलती हुई ।