"अगर वो ज़द में है तो उसपे दावा क्यों नहीं होता / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'" के अवतरणों में अंतर
छो |
|||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
ये गूँगा क्यों नहीं होता, मैं बहरा क्यों नहीं होता | ये गूँगा क्यों नहीं होता, मैं बहरा क्यों नहीं होता | ||
− | सियासत की सतूवत<ref>आतंक</ref> | + | सियासत की सतूवत<ref>आतंक</ref>से सभी ख़ामोश बैठे हैं |
− | से सभी ख़ामोश बैठे हैं | + | |
अरे अब ख़्वाब में भी शख़्स बहका क्यों नहीं होता | अरे अब ख़्वाब में भी शख़्स बहका क्यों नहीं होता | ||
− | शरहतन<ref>खुल्लम खुल्ला</ref>बन के मुंसिफ़<ref>न्यायाधीश</ref> | + | शरहतन<ref>खुल्लम खुल्ला</ref>बन के मुंसिफ़<ref>न्यायाधीश</ref>फ़ैस्ले सड़कों पे करते हैं |
− | फ़ैस्ले सड़कों पे करते हैं | + | |
तो उनके फ़ैस्लों पर कोई चर्चा क्यों नहीं होता | तो उनके फ़ैस्लों पर कोई चर्चा क्यों नहीं होता | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 25: | ||
‘शलभ‘ को बदगुमानी है फ़क़त अपनी उड़ानों पर | ‘शलभ‘ को बदगुमानी है फ़क़त अपनी उड़ानों पर | ||
− | तकब्बुर<ref>घमंड</ref> | + | तकब्बुर<ref>घमंड</ref>जो ज़रा करता तो बिखरा क्यों नहीं होता |
− | जो ज़रा करता तो बिखरा क्यों नहीं होता | + | |
<poem/> | <poem/> |
08:39, 27 नवम्बर 2021 का अवतरण
अगर वो ज़द में है तो उस पे दा‘वा क्यों नहीं होता
कभी सोचो गगन ये और ऊँचा क्यों नहीं होता
ज़माने का ये इतना शोर सुनकर, जी में आता है
ये गूँगा क्यों नहीं होता, मैं बहरा क्यों नहीं होता
सियासत की सतूवत<ref>आतंक</ref>से सभी ख़ामोश बैठे हैं
अरे अब ख़्वाब में भी शख़्स बहका क्यों नहीं होता
शरहतन<ref>खुल्लम खुल्ला</ref>बन के मुंसिफ़<ref>न्यायाधीश</ref>फ़ैस्ले सड़कों पे करते हैं
तो उनके फ़ैस्लों पर कोई चर्चा क्यों नहीं होता
ये काली रात लम्बी है इसे तो काटना ही है
अभी से तुम न ये पूछो ‘सवेरा क्यों नहीं होता
सितारे अपने हिस्से के सभी डूबे हुए हैं क्यों
हमीं पर उसकी रहमत का इषारा क्यूँ नहीं होता
‘शलभ‘ को बदगुमानी है फ़क़त अपनी उड़ानों पर
तकब्बुर<ref>घमंड</ref>जो ज़रा करता तो बिखरा क्यों नहीं होता