"कण्ठ लगा लो तुम मुझे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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जिधर नज़र जाती रही, नफरत बैठी द्वार। | जिधर नज़र जाती रही, नफरत बैठी द्वार। | ||
दुनिया पीड़ित हो रही, करलो केवल प्यार। | दुनिया पीड़ित हो रही, करलो केवल प्यार। | ||
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+ | चन्द्रकला सी सदा बढ़े, तेरी- मेरी प्रीत। | ||
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+ | सागर -सी गहरा रही, तेरी पावन प्रीत। | ||
+ | यह जग बीहड़ बन बना, छोड़ न जाना मीत। | ||
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+ | नाम- सुमरनी नित जपूँ, बस तेरा ही नाम। | ||
+ | तुम मुझमें घट -घट बसो,नहीं और से काम। | ||
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+ | मुझे कण्ठ से बाँध लो, जैसे मधुरिम गीत। | ||
+ | आएँ जो तूफान भी, छोड़ न जाना मीत। | ||
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+ | तेरे अधरों पर रहूँ, जैसे वंशी- तान। | ||
+ | सदा हाथ में हाथ हो, कुछ भी कहे जहान। | ||
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+ | '''14-2-22''' |
16:46, 14 फ़रवरी 2022 के समय का अवतरण
148
सम्बन्धों की दौड़ में, तुमसे वह सम्बन्ध।
सबसे ऊपर प्यार है , कोई न अनुबंध।
149
नहीं स्वाति के नीर की , नहीं अमृत की प्यास।
कण्ठ लगा लो तुम मुझे, यही बची इक आस।
150
छल प्रपंच ने कर दिया, जब जीवन दुश्वार।
बोल प्रेम के बोलकर , महकाया मन द्वार।
151
गर्म उँगलियों से लिखा,करतल पर जो प्यार ।
जीवन में इससे बड़ा, कोई ना उपहार ॥
152
तुम हो दरिया प्रेम का, मैं डूबा हर बार।
समा गया तुझमें सदा, नहीं पहुँचना पार।
153
तुझमें निर्मल नीर है, सागर- सा विस्तार।
मुझे छोड़ जाना नहीं, तुम प्रियवर इस बार।
154
तेरा दुख देता मुझे, जग की दारुण पीर।
तेरी ख़ुशियाँ से उड़े , मन में सदा अबीर।
155
नयनों के आँसू चुनूँ , मन का बनूँ मराल।
दे दूँ खुशियों का गगन, गले पुष्प की माल।
156
मुझे कभी ना चाहिए, स्वर्ग, मुक्ति का द्वार।
धन सबसे ऊपर प्रिये, केवल तेरा प्यार।
157
प्रणव बनकर प्राण प्रिया, रोम -रोम में नाद।
इसी तरह करना सदा, मेरा उर आबाद।
158
शैलशिखर से भी बड़ी, प्रियवर तेरी पीर।
दे नहीं सका सुख तुम्हें, मन है बहुत अधीर।
159
आकर के भुजपाश में, दे दो अपना प्यार।
मैं आकुल इस पार हूँ, तुम व्याकुल उस पार ।
160
जब- जब देखा है तुम्हें, मैंने आँखें मूँद।
तुम सागर हो प्यार के, मैं हूँ तेरी बूँद।
161
अधरों से पीता रहूँ , अश्रु की हर धार।
नफरत दुनिया किया करे, करूँ सदा मैं प्यार।
162
आलिंगन में बाँध लूँ, तुझको मैं प्रिय मीत।
पलकें तेरी चूमकर, भर दूँ उर में गीत।
163
अधरों को मुस्कान दूँ, सभी उदासी छीन।
तिरे नयन में हर खुशी, बनकर चंचल मीन।
164
जिधर नज़र जाती रही, नफरत बैठी द्वार।
दुनिया पीड़ित हो रही, करलो केवल प्यार।
165
रोम -रोम में नित जगे, सौरभ औ संगीत।
चन्द्रकला सी सदा बढ़े, तेरी- मेरी प्रीत।
166
सागर -सी गहरा रही, तेरी पावन प्रीत।
यह जग बीहड़ बन बना, छोड़ न जाना मीत।
167
नाम- सुमरनी नित जपूँ, बस तेरा ही नाम।
तुम मुझमें घट -घट बसो,नहीं और से काम।
168
मुझे कण्ठ से बाँध लो, जैसे मधुरिम गीत।
आएँ जो तूफान भी, छोड़ न जाना मीत।
169
तेरे अधरों पर रहूँ, जैसे वंशी- तान।
सदा हाथ में हाथ हो, कुछ भी कहे जहान।
14-2-22