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पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल

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|सारणी=पटकथा / धूमिल
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<poem>देश और धर्म और नैतिकता की<br>दुहाई देकर<br>कुछ लोगों की सुविधा<br>दूसरों की ‘हाय’पर ‘हाय’ पर सेंकते हैं<br>वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं<br>उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है<br>वे मुस्कराते हैं और<br>दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा<br>करवट बदलकर सो जाती है<br>मैं देखता रहा…<br>देखता रहा…<br>हर तरफ ऊब थी<br>संशय था<br>नफरत नफ़रत थी<br>मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे<br>असहाय था। उसमें<br>सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की<br>बेचैनी थी ,रोष था<br>लेकिन उसका गुस्सा<br>एक तथ्यहीन मिश्रण था:<br>आग और आँसू और हाय का।<br>इस तरह एक दिन-<br>जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था<br>मेरे खून में एक काली आँधी-<br>दौड़ लगा रही थी<br>मेरी असफलताओं असफ़लताओं में सोये हुये<br>वहसी इरादों को<br>झकझोरकर झकझोर कर जगा रही थी<br>अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में<br>डूबते हुये मैंने देखा<br>मेरी उलझनों के अँधेरे में<br>एक हमशक्ल खड़ा है<br>मैंने उससे पूछा-’तुम 'तुम कौन हो?<br>यहाँ क्यों आये हो?<br>तुम्हें क्या हुआ है?’<br>‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ<br>हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,<br>वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल<br>दहल जाता है<br>कलेजा मुँह को आता है<br>और मैं हैरान हूँ<br>‘यहाँ आओ<br>मेरे पास आओ<br>मुझे छुओ।<br>मुझे जियो। मेरे साथ चलो<br>मेरा यकीन करो। इस दलदल से<br>बाहर निकलो!<br>सुनो!<br>तुम चाहे जिसे चुनो<br>मगर इसे नहीं। इसे बदलो।<br>मुझे लगा-आवाज़<br>जैसे किसी जलते हुये कुएँ से<br>आ रही है।<br>एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट<br>जैसे कोई मादा भेड़िया<br>अपने छौने को दूध पिला रही है<br>साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है<br>मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था<br>उसकी आवाज में<br>असंख्य नरकों की घृणा भरी थी<br>वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर<br>बोल रहा था। मगर उसकी आँख<br>गुस्से में भी हरी थी<br>वह कह रहा था-<br>‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में<br>वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं<br>और तुम पेड़ों की छाल गिनकर<br>भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो<br>तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो<br>जिसमें न कोई तुक है<br>न सुख है<br>तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर<br>रास्ते में रुक गये हो<br>तुम जो हर चीज़<br>अपने दाँतों के नीचे<br>खाने के आदी हो<br>चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो<br>अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो<br>वह क्या है जिसने तुम्हें<br>बर्बरों के सामने अदब से<br>रहना सिखलाया है?<br>क्या यह विश्वास की कमी है<br>जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है<br>या कि शर्म<br>अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है<br>नहीं-सरलता की तरह इस तरह<br>मत दौड़ो<br>उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का<br>रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का<br>आधार है<br>मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई<br>दुनिया में<br>आसानी से समझ में आने वाली चीज़<br>सिर्फ दीवार है।<br>और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का<br>हिस्सा बन गयी है<br>इसे झटककर अलग करो<br>अपनी आदतों में<br>फूलों की जगह पत्थर भरो<br>मासूमियत के हर तकाज़े को<br>ठोकर मार दो<br>अब वक्त वक़्त आ गया है तुम उठो<br>और अपनी ऊब को आकार दो।<br>‘सुनो !<br>आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ<br>जिसके आगे हर सचाई<br>छोटी है। इस दुनिया में<br>भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क<br>रोटी है।<br>मगर तुम्हारी भूख और भाषा में<br>यदि सही दूरी नहीं है<br>तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो<br>क्योंकि पशुता -<br>सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है<br>वह आदमी को वहीं ले जाती है<br>जहाँ भूख<br>सबसे पहले भाषा को खाती है<br>वक्त वक़्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है<br>जो अपने चेहरे की राख<br>दूसरों की रूमाल से झाड़ता है<br>जो अपना हाथ<br>मैला होने से डरता है<br>वह एक नहीं ग्यारह कायरों की<br>
मौत मरता है
</poem>
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