भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हलकी हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |संग्रह= }} Category:तु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

02:56, 11 मार्च 2022 के समय का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: नाज़िम हिक़मत  » हलकी हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें / नाज़िम हिक़मत

हलकी हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी
      जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
                     तारपीन का रेशमी दरख़्त,
हरी
       जैसे सोने के पत्तर पर
                             हरी मीनाकारी ।
ये कैसा माजरा है, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
         एक बार भी उसके हाथ
                   मेरे हाथों से नहीं छुए ।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ
वह वहाँ ।
मेरी दुख़्तर-बीवी
तुम्हारी गुदाज़-गोरी गरदन पर
                   अब सलवटें उभर रही हैं ।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
                                      बूढ़ा होना ।
जिस्म की बोटियों के ढीले पड़ने को
                            कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना
      बूढ़ा होना
               उन लोगों का मर्ज़ है जो इश्क़ नहीं कर सकते ।

१९४७

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल