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"आज की रात बर्फ़ गिर रही है / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल" के अवतरणों में अंतर

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शायद इर में बँधी ख़ून में तर पट्टी के नीचे
 
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शायद तुम्हारे पास एक ख़ूबसूरत आवाज़ थी ।
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शायद तुम दर्शनशास्त्र या विधिशास्त्र के एक विद्यार्थी थे
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और तुम्हारी किताबें तुम्हारी यूनिवर्सिटी के कैम्पस में
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शायद किसी जन्नत में तुम्हारा यक़ीन नहीं था
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कौन हो तुम, कहाँ पैदा हुए, क्या है तुम्हारा नाम ?
  
 
25 दिसम्बर 1937
 
25 दिसम्बर 1937

14:31, 17 अप्रैल 2022 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: नाज़िम हिक़मत  » आज की रात बर्फ़ गिर रही है / नाज़िम हिक़मत

न परलोक की आवाज़ें सुन पाने की छटपटाहट
न अपने नग़्मों में गूढ़ता पैदा करने की जद्दोजहद
न किसी जौहरी की-सी फ़िक्रमन्दी से बहर की तलाश
न ख़ूबसूरत लफ़्ज़,न पुरमग़्ज़ तक़रीर
        शुक्र ख़ुदा का
                 कि आज रात मैं इस सबसे ऊपर हूँ
                           बहुत बहुत ऊपर हूँ ।

आज रात
मैं एक जनगायक हूँ, कोई लयकारी नहीं मेरी आवाज़ में;
गा रही है वो एक नग़्मा तुम्हारे लिए
                           जिसे तुम शायद सुन नहीं पाओगे ।

रात का वक़्त है और बर्फ़ गिर रही है,
और तुम माद्रिद की दहलीज़ र डटे हो
और तुम्हारे मुक़ाबिल एक फ़ौज तैनात है —
                   उम्मीद, हस्रत, आज़ादी और बच्चे
                   और शहर ...
                   यानी कि हमारी बेहद ख़ूबसूरत चीज़ों का
                   क़त्ल करती हुई

बर्फ़ गिर रही है
और शायद आज की रात
तुम्हारे गीले पैर ठण्ड से ठिठुर रहे होंगे !
बर्फ़ गिर रही है
और इस वक़्त जब मैं तुम्हारी फ़िक्र में डूबा हुआ हूँ
मुमकिन है इसी वक़्त एक गोली
         तुम्हारे जिस्म में पेवस्त हो रही हो !
तब कोई मानी नहीं रह जाएँगे तुम्हारे लिए
         बर्फ़ के, हवा के, दिन या रात के ...

बर्फ़ गिर रही है
’आगे मत बढ़ना !’ कहते हुए
माद्रिद की दहलीज़ पर तुम्हारे आ खड़े होने से पहले
कहीं न कहीं से तो तुम आए ही होंगे !
किसे पता,
शायद तुम अस्तूरिया की कोयला खदानों से आए हो
शायद इर में बँधी ख़ून में तर पट्टी के नीचे
तुम छिपाए हो उत्तरी इलाके में मिला अपना ज़ख़्म ।
और जब बाऊबाओ शहर को आग के हवाले
कर रहे थे ’कबाड़िये’
तब शायद शहरी इलाक़े में आख़िरी गोली तुम्हीं ने चलाई थी ।
या शायद एक खेत-मजूर के तौर पर काम कर रहे थे तुम
कार्दोबा के किसी सामन्त फ़ेरनान्दो वायस्केरास के फ़ार्म पर,
शायद तुम्हारी एक छोटी-सी दुकान थी प्लाज़ा देल सोल में
बेचते थे तुम रंग-ब-रंगे स्पहानी फल !
शायद तुम नहीं जानते थे कोई कारीगरी,
शायद तुम्हारे पास एक ख़ूबसूरत आवाज़ थी ।
शायद तुम दर्शनशास्त्र या विधिशास्त्र के एक विद्यार्थी थे
और तुम्हारी किताबें तुम्हारी यूनिवर्सिटी के कैम्पस में
          किसी इतालवी टैंक ने कुचल डाली थीं ।
शायद किसी जन्नत में तुम्हारा यक़ीन नहीं था
और शायद धागे में पिरोया एक नन्हा क्रास
           तुम्हारे सीने पर लटका हुआ था !

कौन हो तुम, कहाँ पैदा हुए, क्या है तुम्हारा नाम ?

25 दिसम्बर 1937

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल