"पत्थर धर्म / विनोद शाही" के अवतरणों में अंतर
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पाषाण काल से
कथा सनातन चली आ रही
अब तक पत्थर
मानव होने की
ज़िद करते हैं
शिला-पुरुष हैं एक ओर
बुलडोज़र के पहियों से
उनके कुछ टुकड़े अलग हुए तो
जन्मे बाक़ी के पत्थर जन
जैसे आदम की पसली से
हव्वा निकली है
जैसे पैरों से ब्रह्मदेव के
शूद्रों का उद्भव होता है
मर्यादा पुरुषोत्तम
शिला-पुरुष ने
अन्य सभी को
स्वयंसेवकों में रखा है
सृष्टि पूर्व से रचित सनातन
पृथ्वी शिला-सा
‘पत्थर धर्म’ चलाया है
‘बुलडोज़र स्मृति’ को
संविधान का रूप दिया है
जन-जन की पत्थर-काया को
तोड़ा उसने रोड़ी में
और आत्मा का चूरा कर
सीमेण्ट में बदला
शिला-पुरुष का भव्य भवन
यों खड़ा हुआ
अलग धर्म के लोग मगर
‘बुलडोज़र स्मृति’ के
विधि-विधान के
जलसों-त्योहारों से बचते हैं
हाथों में पत्थर
उनके भी हैं
और अहिंसक हैं थोड़े
गीता अपनी के मंत्र बोलते
“देह हमारी बेशक कुचले बुलडोज़र कोई
नहीं आत्मा उसके हाथों आएगी”
परवाह नहीं, बस रौंद दिए
परधर्मी घर बुलडोज़ हुए
पत्थर के ढेर बचे पीछे
पहचान नहीं पाता है कोई
कहाँ पड़े दिखते पत्थर हैं
कहाँ स्वयं वे पड़े हुए हैं
‘बुलडोज़र स्मृति’ में लिखा मिला है
‘शठे शाठ्यम् समाचरेत’ ही
न्याय-धर्म की रीति है
वे आतंकी, अर्बन नक्सल हैं
पाकिस्तानी तक उनमें हैं
बीमार देश है
दवा तिक्त पीनी पड़ती है
जड़ समाज होता जाता है
नहीं बुरा यह लेकिन इतना है
जितना उसका
पत्थर होने की
स्मृति से बन्धना है
खो देना इतिहास-बोध को
जीते जी पत्थर होने से
राज़ी होना है
पत्थर से मुर्दा
सभी हो रहे
कुछ पत्थर होकर भी
लेकिन थोड़े जीवित हैं
लेकिन बेहद थोड़े हैं
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
देवजनों की प्रस्तर प्रतिमाएँ
जीवित पत्थर से बनती हैं
जीवित पत्थर पर
छिपे हुए हैं
देव-मूर्तियाँ इसलिए
हो गईं विहीन
ईश्वर से अपने
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
संस्कृति से जीवन
विदा हो गया
युद्ध लिप्सा से भरे हुए
मानवद्रोही काम सभी
बेजान पत्थरों के ज़िम्मे हैं
जीवित पत्थर से
जीवित जन
पाषाण काल में
लौट रहे हैं
लौट रहे पर
आसान नहीं उनकी यात्रा है
रस्ता
गुहाद्वार से होकर जाता है
उसके मुख पर पड़ी हुई है
एक शिला
जिस पर इतिहास आद्य काल का
भित्तिचित्र-सा अंकित है
दिख रहा साफ़ है
शिला-पुरुष पृथ्वी के सारे
उसकी नक़ल किया करते हैं
पाखण्डी प्रतिनिधि ईश्वर के
इतिहास-शिला की
पैरोडी ख़ाली करते हैं
इतिहास-शिला से
भूकम्पन से स्वर उठते हैं
बोल रही वह
मेरे पीछे छिपे रहस्य हैं
खोलो द्वार
सत्यकथा को
फिर से बाहर आने दो
पाषाण काल की ध्वनियाँ सारी
उसकी भाषा में अर्थ बनी हैं
पत्थर लिपि में लिखी मिलीं हैं
दुश्मन बेशक बहुत बड़ा हो
और हारना निश्चित हो
रणभूमि को ऐसे में
पीछे छोड़ो, रणछोड़ बनो
धैर्य धरी, दृढ़ बने रहो
इतिहास मदद करने आएगा
कालयवन में शक्ति दम्भ है
जड़ बुद्धि दैत्य है, वैसा ही है
जैसा होता बुलडोजर कोई
अन्धगुहा के भीतर तक भी
पीछा करता आएगा ही
आने दो उसको पीछे-पीछे
असुरारि मुचुकुंद
वहाँ सोया है कब से
काल तुम्हारा
कालयवन
उसका है भोजन
महाशिला से
कालयवन कंकाल बने
पड़े हुए है
काल गुहा में जाने कितने
लौटे वापिस
पाषाण काल से
जीवित पत्थर
चिकने होकर
स्वयं लुढ़कना
आगे बढ़ना सीख रहे हैं
स्वयं-सेव हैं वे ही सच्चे
मुर्दा पत्थर
लेकिन ठहरे हैं
‘शिला छाप’ हैं
भगवा ठप्पे
उनके माथों पर लगे हुए हैं
ट्रेडमार्क बनते हैं जैसे
उपयोगी चीज़ों के
खुसरो बनकर
आए हैं लेकिन वे तो अब
छाप-तिलक सब छोड़ रहे हैं
वे कबीर हैं
अष्ट-छापिया
पत्थर धर्मों के पार खड़े हैं