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"आस्था - 15 / हरबिन्दर सिंह गिल" के अवतरणों में अंतर
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यह सब इसलिये हो रहा है
मानव शायद आस्था का अर्थ
समझ नहीं पा रहा है
और जब तक
इस शब्द को अपने जीवन का
अभिन्न अंग बनाकर
जीने का आदी नहीं होगा
जिंदगी यूं ही लड़खड़ाती रहेगी।
लड़खड़ाता मानव
कब किसी का सहारा बना है
वह तो खुद गिरता है
दूसरे को भी गिराता है।
शायद इसलिये ही
मेरी माँ-मानवता
आज तक संभल नहीं सकी है
दिन प्रति-दिन टूटती जा रही है
परंतु फिर भी जी रही है
यह सोचकर
कभी तो उसके बेटे के दिल में
जागेगी आस्था
उसकी माँ-मानवता के लिये।