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"खोलो तो द्वार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / प्रयाग शुक्ल" के अवतरणों में अंतर
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लौटी हैं गायें, पाखी भी लौटे | लौटी हैं गायें, पाखी भी लौटे | ||
लौटे हैं वे अपने नीड़ | लौटे हैं वे अपने नीड़ | ||
पथ जितने सारे, सारे जगत के, | पथ जितने सारे, सारे जगत के, | ||
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खोए, अन्धेरे में डूबे | खोए, अन्धेरे में डूबे | ||
देना मुझे मत फेर | देना मुझे मत फेर |
00:56, 8 मई 2022 के समय का अवतरण
खोलो तो द्वार, फैलाओ बाँहें
बाँहों में लो मुझको घेर
आओ तो बाहर, बाहर तो आओ
अब कैसी देर
निबटे हैं कामकाज, चमका ये संध्या का तारा
डूबा आलोक वहाँ सागर के पार अरे,
डूबा है सारा-का-सारा
भर भर के कलशी , छलकाई कैसी
ओढ़ा है कैसा दुकूल
देखूँ तो माला, गूँथी है कैसी,
केशों में है कैसा फूल
लौटी हैं गायें, पाखी भी लौटे
लौटे हैं वे अपने नीड़
पथ जितने सारे, सारे जगत के,
खोए, अन्धेरे में डूबे
देना मुझे मत फेर
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल