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"ग़ज़ल 1-3 / विज्ञान व्रत" के अवतरणों में अंतर

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या  तो  मुझसे  यारी  रख 
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या  फिर  दुनियादारी  रख
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ख़ुद  पर    पहरेदारी  रख
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अपनी      दावेदारी    रख
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जीने    की    तैयारी    रख
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मौत  से  लड़ना  जारी  रख
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लहजे  में  गुलबारी    रख
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लफ़्ज़ों  में    चिंगारी  रख
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जिससे  तू  लाचार  न  हो
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इक  ऐसी    लाचारी  रख
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वो  सितमगर    है    तो  है
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अब  मेरा  सर  है  तो    है
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आप  भी  हैं    मैं  भी  हूँ
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अब  जो  बेहतर  है  तो  है
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जो  हमारे    दिल    में  था
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अब  ज़बाँ  पर  है  तो  है
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है  मेरा    घर    है    तो  है
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एक  सच    है    मौत    भी
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वो    सिकन्दर    है    तो  है
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पूजता    हूँ      बस    उसे
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अब  वो  पत्थर  है  तो  है
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कुछ    दिन    बे-पहचान    रहूँ
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अपना  चेहरा    किसको    दूँ
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और  उन्हें  अब  क्या  लिक्खूँ
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ख़त  में  ख़ुद  को  ही  रख  दूँ
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ख़ुद  को    कुछ    ऐसे  छेड़ूँ
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जैसे    कोई      नग़मा      हूँ
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इक  अंकुर - सा    रोज़  उगूँ
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और  फ़सल - सा  रोज़  कटूँ
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अब  उनकी    तस्वीर    बनूँ
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ख़ुद  को  फिर  तहरीर  करूँ
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पहले  ख़ुद  से    तो  निबटूँ
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फिर  इस  दुनिया  को  देखूँ
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शाम  को  जितना  घर  लौटूँ
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ये  समझो    बस  उतना  हूँ
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09:53, 31 मई 2022 के समय का अवतरण

1
या तो मुझसे यारी रख
या फिर दुनियादारी रख

ख़ुद पर पहरेदारी रख
अपनी दावेदारी रख

जीने की तैयारी रख
मौत से लड़ना जारी रख

लहजे में गुलबारी रख
लफ़्ज़ों में चिंगारी रख

जिससे तू लाचार न हो
इक ऐसी लाचारी रख

2
वो सितमगर है तो है
अब मेरा सर है तो है

आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है

जो हमारे दिल में था
अब ज़बाँ पर है तो है

दुश्मनों की राह में
है मेरा घर है तो है

एक सच है मौत भी
वो सिकन्दर है तो है

पूजता हूँ बस उसे
अब वो पत्थर है तो है
3
कुछ दिन बे-पहचान रहूँ
अपना चेहरा किसको दूँ

और उन्हें अब क्या लिक्खूँ
ख़त में ख़ुद को ही रख दूँ

ख़ुद को कुछ ऐसे छेड़ूँ
जैसे कोई नग़मा हूँ

इक अंकुर - सा रोज़ उगूँ
और फ़सल - सा रोज़ कटूँ

अब उनकी तस्वीर बनूँ
ख़ुद को फिर तहरीर करूँ

पहले ख़ुद से तो निबटूँ
फिर इस दुनिया को देखूँ

शाम को जितना घर लौटूँ
ये समझो बस उतना हूँ