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"मन्नत के धागे / रश्मि विभा त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर
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+ | आँँसू से मन्त्रपूत | ||
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+ | चली टटोलने को | ||
+ | चिंता की नब्ज | ||
+ | छूकर मेरा माथा | ||
+ | एक पल में | ||
+ | धगड़कर गाँठ | ||
+ | धीरे से कसी | ||
+ | आँचल के छोर में | ||
+ | खुद-ब-खुद | ||
+ | खुल गईं बेड़ियाँ | ||
+ | उन्मुक्त उड़ी | ||
+ | साँझ या कि भोर में | ||
+ | आस का नभ | ||
+ | चूमूँ हो विभोर मैं | ||
+ | न कभी बही | ||
+ | हार की हिलोर में | ||
+ | कब सहमी | ||
+ | सन्नाटे के शोर में | ||
+ | मेरे सर से | ||
+ | 'सेरा' उसारकर | ||
+ | आधि- व्याधि को | ||
+ | फेंका उतारकर | ||
+ | मेरी अक्सीर | ||
+ | तेरे पोर- पोर में | ||
+ | जगाते भाग | ||
+ | माँ तेरे ये दो हाथ | ||
+ | दुआ से दिन- रात। | ||
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+ | ('सेरा' अर्थात अनाज का वह थोड़ा भाग, जो माँ अपनी संतान की सलामती के लिए उसके सर के ऊपर सात बार घुमाकर अलग रख देती है दान के हित। | ||
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10:21, 5 जून 2022 के समय का अवतरण
मेरी खातिर
नित नेम से बाँधे
हर पहर
मन्नत के जो धागे
दुख सारे ही
दुम दबाके भागे
उन धागों में
मेरा सुख अकूत
पिरोके तूने
आँँसू से मन्त्रपूत
कर दिया है
चली टटोलने को
चिंता की नब्ज
छूकर मेरा माथा
एक पल में
धगड़कर गाँठ
धीरे से कसी
आँचल के छोर में
खुद-ब-खुद
खुल गईं बेड़ियाँ
उन्मुक्त उड़ी
साँझ या कि भोर में
आस का नभ
चूमूँ हो विभोर मैं
न कभी बही
हार की हिलोर में
कब सहमी
सन्नाटे के शोर में
मेरे सर से
'सेरा' उसारकर
आधि- व्याधि को
फेंका उतारकर
मेरी अक्सीर
तेरे पोर- पोर में
जगाते भाग
माँ तेरे ये दो हाथ
दुआ से दिन- रात।
('सेरा' अर्थात अनाज का वह थोड़ा भाग, जो माँ अपनी संतान की सलामती के लिए उसके सर के ऊपर सात बार घुमाकर अलग रख देती है दान के हित।
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