"स्वाभिमान / देवब्रत सिंह / प्रशान्त विप्लवी" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं जामवनी, दुसाध टोले के शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ | + | मैं जामवनी, दुसाध टोले के |
+ | शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ | ||
पत्रकारों ने कहा — | पत्रकारों ने कहा — | ||
“अरे इतना ही बोल देने से भला कैसे होगा? | “अरे इतना ही बोल देने से भला कैसे होगा? | ||
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तुम्हें कुछ और तो बोलना ही पड़ेगा ।" | तुम्हें कुछ और तो बोलना ही पड़ेगा ।" | ||
टीवी वालों ने पूछा,—”तुम मज़दूर की बेटी, | टीवी वालों ने पूछा,—”तुम मज़दूर की बेटी, | ||
− | लोगों के यहाँ चौका-बर्तन करके दसवीं में अव्वल कैसे आई ? | + | लोगों के यहाँ चौका-बर्तन करके |
+ | दसवीं में अव्वल कैसे आई ? | ||
इन्हीं बातों को तुम्हें खुलकर बताना है ।” | इन्हीं बातों को तुम्हें खुलकर बताना है ।” | ||
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पंचायत की अनी भाभी, ग्राम-प्रधान, उप-प्रधान, एमएलए, एमपी | पंचायत की अनी भाभी, ग्राम-प्रधान, उप-प्रधान, एमएलए, एमपी | ||
सबलोग टूट पड़े मेरे झोंपड़ी वाले घर में | सबलोग टूट पड़े मेरे झोंपड़ी वाले घर में | ||
जामवनी स्कूल के हेडमास्टर ने | जामवनी स्कूल के हेडमास्टर ने | ||
भोरे-भोर टिन का गेट खोलकर | भोरे-भोर टिन का गेट खोलकर | ||
− | हाँकते-पुकारते हमारी नींद तोड़ दी — जब उन्होंने पहली बार यह ख़बर सुनाई | + | हाँकते-पुकारते हमारी नींद तोड़ दी — |
+ | जब उन्होंने पहली बार यह ख़बर सुनाई | ||
उस समय मैं माँ से लिपटकर सोई हुई थी | उस समय मैं माँ से लिपटकर सोई हुई थी | ||
− | उस झोपड़ी के घनघोर अन्धेरे में हेडमास्टर साब को देखते ही | + | |
− | आँखें मिंचमिंचाते हुए माँ और मैं दोनों हतवाक होकर यही सोचने लगे — | + | उस झोपड़ी के घनघोर अन्धेरे में |
+ | हेडमास्टर साब को देखते ही | ||
+ | आँखें मिंचमिंचाते हुए माँ और मैं दोनों | ||
+ | हतवाक होकर यही सोचने लगे — | ||
क्या हम सपना देख रहे हैं | क्या हम सपना देख रहे हैं | ||
− | सर बोल उठे — अरे ये सपना नहीं, बिलकुल भी सपना नहीं है, सच है | + | सर बोल उठे — अरे ये सपना नहीं, |
+ | बिलकुल भी सपना नहीं है, सच है | ||
सुनते ही खूब रोए थे हम माँ-बेटी | सुनते ही खूब रोए थे हम माँ-बेटी | ||
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आज बाप ज़िन्दा होता | आज बाप ज़िन्दा होता | ||
उस आदमी को मैं दिखा पाती, दिखा पाती बहुत कुछ — | उस आदमी को मैं दिखा पाती, दिखा पाती बहुत कुछ — | ||
मेरे सीने के भीतर | मेरे सीने के भीतर | ||
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जिस आदमी ने तेज़ रोशनी का संध्या दीप जलाया था | जिस आदमी ने तेज़ रोशनी का संध्या दीप जलाया था | ||
− | वही रोशनी आज किस तरह इस झोपड़ी को रोशन कर रही है | + | वही रोशनी आज किस तरह |
− | + | इस झोपड़ी को रोशन कर रही है | |
− | आप लोग कह तो रहे हैं | + | मैं दिखा पाती उन्हें |
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+ | आप लोग कह तो रहे हैं — | ||
“तुम लोगों की तरह लड़कियाँ अगर उठकर आ पातीं, | “तुम लोगों की तरह लड़कियाँ अगर उठकर आ पातीं, | ||
− | तभी भारतवर्ष उठ सकता है” | + | तभी भारतवर्ष उठ सकता है”, |
− | बात तो बिलकुल सही है लेकिन | + | बात तो बिलकुल सही है, लेकिन |
उठकर आने का रास्ता ही कहाँ तैयार है यहाँ | उठकर आने का रास्ता ही कहाँ तैयार है यहाँ | ||
खड़े पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना क्या आसान है इतना | खड़े पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना क्या आसान है इतना | ||
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“बेटी है कि माटी” | “बेटी है कि माटी” | ||
दादी बोलती थी | दादी बोलती थी | ||
− | दूसरो के घर बर्तन-बासन ही तो करना है फिर क्या पढ़ना-लिखना | + | दूसरो के घर बर्तन-बासन ही तो करना है |
+ | फिर क्या पढ़ना-लिखना | ||
गाँव के बाबू लोग बोलते थे | गाँव के बाबू लोग बोलते थे | ||
− | तुम दुसाध टोले की बेटी , बर्तन-बासन के | + | तुम दुसाध टोले की बेटी, बर्तन-बासन के अलावा |
− | बाप बोलता था | + | और भला, क्या चारा |
− | “देख | + | पर बाप बोलता था |
− | सुनो जो जैसा भी बोल रहा है बोलने दो | + | “देख साँझली – मन को दुखाओगी तो हार जाओगी |
+ | सुनो जो जैसा भी बोल रहा है, बोलने दो | ||
सारी बातें एक कान से सुन लो | सारी बातें एक कान से सुन लो | ||
और दूसरी कान से निकाल दो | और दूसरी कान से निकाल दो | ||
− | उस समय बाबू पाड़ा के दे घर में माँ बर्तन-बासन करती थी | + | |
− | क्षय रोग के बावजूद माँ | + | उस समय बाबू पाड़ा के दे घर में |
− | बीच-बीच में कभी | + | माँ बर्तन-बासन करती थी |
+ | क्षय रोग के बावजूद माँ की देह टूटी नहीं थी उतनी | ||
+ | बीच-बीच में कभी बुख़ार अवश्य आता था, | ||
+ | बुख़ार आने पर माँ | ||
चुपचाप आँगन में चटाई बिछाकर सो जाती | चुपचाप आँगन में चटाई बिछाकर सो जाती | ||
− | |||
+ | याद है वो एक जाड़े की सुबह थी | ||
झिलमिलाती हुई धूप खिली थी | झिलमिलाती हुई धूप खिली थी | ||
बिल्कुल झींगे के फूलों-सी पीली धूप | बिल्कुल झींगे के फूलों-सी पीली धूप | ||
मैं धूप की तरफ पीठ करके हिलते हुए पढ़ रही थी | मैं धूप की तरफ पीठ करके हिलते हुए पढ़ रही थी | ||
इतिहास .... | इतिहास .... | ||
− | सातवीं क्लास के | + | सातवीं क्लास के सामन्ती राजाओं का इतिहास |
− | दे घराने की | + | दे घराने की बहू ने कई बार लोगों से हाँक भिजवाई थी |
माँ को बुखार है लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते | माँ को बुखार है लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते | ||
− | हमारी | + | हमारी बूढ़ी दादी तब ज़िन्दा ही थी |
− | फटे हुए कम्बल ओढ़कर बीड़ी | + | फटे हुए कम्बल ओढ़कर बीड़ी धोंक रही थी बुढ़िया |
− | + | ||
+ | आख़िर बूढ़ी ने मुझे पढ़ाई से उठवा ही दिया | ||
माँ के काम के लिए मुझे बाबू लोगों के घर भेज दिया | माँ के काम के लिए मुझे बाबू लोगों के घर भेज दिया | ||
− | पुरानी | + | पुरानी चहारदीवारी से घिरा विशाल आँगन – |
− | बरामदा | + | जितना बड़ा दर-दलान, |
+ | उतना ही बड़ा बरामदा | ||
सब जगह झाड़ू-पोछा करके वापिस आ रही थी | सब जगह झाड़ू-पोछा करके वापिस आ रही थी | ||
− | दे घर की | + | दे घर की बहू ने नहीं छोड़ा ढेर सारा जूठा बर्तन |
− | मेरे सामने लाकर रख दी | + | मेरे सामने लाकर रख दी । मैं बोली — |
“मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी” | “मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी” | ||
− | बाबू के | + | बाबू के बहू को बहुत गुस्सा आया — |
− | “क्या बोली, जितनी बड़ी | + | “क्या बोली, जितनी बड़ी लड़की नहीं उतनी बड़ी बात, |
− | तुम्हारी माँ , तुम्हारी माँ की माँ , उसके माँ की माँ सबलोग अब तक | + | जानती हो |
− | हमलोगों का जूठा धोकर | + | तुम्हारी माँ , तुम्हारी माँ की माँ , उसके माँ की माँ |
− | और तुम हमलोगों का जूठा बर्तन नहीं | + | सबलोग अब तक |
− | बोल दिया “हाँ , मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी” | + | हमलोगों का जूठा धोकर गुज़र गईं |
− | आप किसी और को | + | और तुम हमलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोओगी |
− | और बोलकर | + | |
+ | पर मैंने बोल दिया — | ||
+ | “हाँ , मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी” | ||
+ | आप किसी और को ढूँढ़ लो, मै चली .. | ||
+ | और बोलकर बाबू की बहू के सामने से गटगट गटगट कर | ||
मैं लौट आई | मैं लौट आई | ||
उसके बाद उन बातों को लेकर बहुत झमेला हुआ | उसके बाद उन बातों को लेकर बहुत झमेला हुआ | ||
− | बेला डूबते ही बाप महतो लोगों का धान काटकर घर लौटा | + | बेला डूबते ही बाप |
− | दो पन्ने की पढ़ाई करने | + | महतो लोगों का धान काटकर घर लौटा |
+ | दो पन्ने की पढ़ाई करने वाली | ||
+ | इस छोटी पोती के मुँह से इतनी बड़ी-बड़ी बातें | ||
सातकहन की तरह समझाया था बुढ़िया ने | सातकहन की तरह समझाया था बुढ़िया ने | ||
माँ एकदम चुप थी | माँ एकदम चुप थी | ||
− | अगहन महीने के संध्या बेला में | + | |
+ | अगहन महीने के संध्या बेला में | ||
+ | आँगन में आग जलाई गई है | ||
माँ हाथ-पाँव सेंक रही थी | माँ हाथ-पाँव सेंक रही थी | ||
घने बालों वाले पिता का पत्थर-सा सपाट चेहरा | घने बालों वाले पिता का पत्थर-सा सपाट चेहरा | ||
आग में चमक उठा था | आग में चमक उठा था | ||
मैंने बाप का वैसा चेहरा कभी नहीं देखा | मैंने बाप का वैसा चेहरा कभी नहीं देखा | ||
− | मेरे बाप ने उस रोज़ माँ और बुढ़िया दादी के सामने अपने पास बुलाया | + | मेरे बाप ने उस रोज़ माँ और बुढ़िया दादी के सामने |
+ | अपने पास बुलाया | ||
माथे पर हाथ फेरते हुए ओजस्वी स्वर में बोले – | माथे पर हाथ फेरते हुए ओजस्वी स्वर में बोले – | ||
“जो भी किया ! बढ़िया किया | “जो भी किया ! बढ़िया किया | ||
− | सुन, तुम्हारी माँ, उनकी माँ, उनके माँ की माँ – सब ने बर्तन-बासन की है बाबुओं | + | सुन, तुम्हारी माँ, उनकी माँ, उनके माँ की माँ – |
− | के घर में पेट भरने के लिए मेहनत की | + | सब ने बर्तन-बासन की है बाबुओं के घर में |
+ | पेट भरने के लिए मेहनत की | ||
लेकिन उससे हुआ क्या | लेकिन उससे हुआ क्या | ||
− | लेकिन उससे हुआ क्या इस बात को याद रखना | + | लेकिन उससे हुआ क्या, इस बात को याद रखना साँझली, |
− | + | ||
− | चाहे जितना बड़ा लाट साहेब ही क्यों न हो किसी के सामने सिर झुकाकर | + | तुमने बर्तन-बासन करने के लिए जन्म नहीं लिया है |
+ | चाहे जितना बड़ा लाट साहेब ही क्यों न हो | ||
+ | किसी के सामने सिर झुकाकर | ||
अपने इस स्वाभिमान को मत बेच देना | अपने इस स्वाभिमान को मत बेच देना | ||
− | इसी स्वाभिमान के लिए तुझे | + | इसी स्वाभिमान के लिए तुझे पढ़ना-लिखना सिखाया है |
− | नहीं तो हम जैसे पेट पालने वालों के घर में है ही क्या ?” | + | नहीं तो, हम जैसे पेट पालने वालों के घर में है ही क्या ?” |
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− | आगे-पीछे पुलिस लेकर मंत्री दौड़े | + | मैं जामवनी के दुसाध टोले की शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ |
− | “कहाँ है रे | + | कबके उस सातवे क्लास की वो बात सोच रही हूँ |
− | + | कि अख़बार वालों और टीवी वालों के सामने क्या बोलूँ | |
− | हेडमास्टर बोल उठे,”प्रणाम कर | + | ताड़ के पत्तों से घिरे गोबर लिपे उस आँगन में लोगों का हुजूम भरा है |
− | मंत्री ने पीठ | + | |
+ | इस बीच साइरन बजाते हुए, जीप गाड़ी पर सवार | ||
+ | आगे-पीछे पुलिस लेकर मंत्री दौड़े आए — | ||
+ | “कहाँ है रे साँझली कोइरी, कहाँ है” — बोलते हुए | ||
+ | बन्दूकधारी पुलिस लेकर सीधे हमारे झोपड़ी वाले घर में । | ||
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+ | हेडमास्टर बोल उठे,— ”प्रणाम कर, साँझली, प्रणाम कर ।” | ||
+ | मंत्री ने पीठ थपथपाई, थपथपाते हुए बोला — | ||
“तुम लोगों के घर बर्तन-बासन करते हुए दसवीं में अव्वल आई हो | “तुम लोगों के घर बर्तन-बासन करते हुए दसवीं में अव्वल आई हो | ||
− | इसलिए तुम्हें ही देखने आया हूँ, सच में बहुत | + | इसलिए तुम्हें ही देखने आया हूँ, सच में बहुत ग़रीबी है |
तुम जैसी लडकियाँ आगे बढ़े | तुम जैसी लडकियाँ आगे बढ़े | ||
− | इसलिए तो हमारी पार्टी है , इसलिए हमारी सरकार है | + | इसलिए तो हमारी पार्टी है, इसलिए हमारी सरकार है |
− | + | — ये लो, दस हज़ार रूपये का चेक, अभी लो | |
− | सुनो, हमलोग | + | सुनो, हमलोग तुम्हें और भी फूल और सम्मान देंगे |
और भी रूपये मिलेंगे | और भी रूपये मिलेंगे | ||
− | अरे | + | अरे टीवी वाले, अख़बार वाले कौन हैं, इस तरफ़ आओ“ |
+ | |||
उसी समय छोटे-बड़े कैमरे झलक उठे | उसी समय छोटे-बड़े कैमरे झलक उठे | ||
− | झलक उठा मंत्री का चेहरा , नहीं | + | झलक उठा मंत्री का चेहरा, नहीं- नहीं, मंत्री नहीं, मंत्री नहीं |
झलक उठा मेरे बाप का चेहरा | झलक उठा मेरे बाप का चेहरा | ||
लहकते हुए आग से झलकते मनुष्य का चेहरा | लहकते हुए आग से झलकते मनुष्य का चेहरा | ||
मैं उसी समय बोल उठी – | मैं उसी समय बोल उठी – | ||
− | “नहीं | + | “नहीं-नहीं, ये रूपये मुझे नहीं चाहिए, |
− | और आपने | + | और आपने जो फूल और सम्मान देने की बातें की, वो भी नहीं चाहिए“ |
+ | |||
मंत्री थूक निगलने लगा | मंत्री थूक निगलने लगा | ||
गाँव के दे घराने का बड़ा बेटा अभी पार्टी का बड़ा नेता बन गया है | गाँव के दे घराने का बड़ा बेटा अभी पार्टी का बड़ा नेता बन गया है | ||
भीड़ को चीरते हुए सामने आकर बोला – | भीड़ को चीरते हुए सामने आकर बोला – | ||
− | “क्यों क्या हुआ रे | + | “क्यों, क्या हुआ रे साँझली, |
तू तो मेरे घर की नौकरानी थी | तू तो मेरे घर की नौकरानी थी | ||
बोल तुझे क्या चाहिए, बोल खुलकर बोल तुझे क्या-क्या चाहिए” | बोल तुझे क्या चाहिए, बोल खुलकर बोल तुझे क्या-क्या चाहिए” | ||
− | बोली | + | बोली — |
− | मेरे मोहल्ले में और भी सौ-सौ | + | मेरे मोहल्ले में और भी सौ-सौ साँझली है |
− | और भी शिबू दुसाध की | + | और भी शिबू दुसाध की लड़कियाँ हैं ग्राम-गंज में |
− | वे लोग जब तक | + | वे लोग जब तक अन्धेरे में रहेंगी, जब तक वे पढ़ने-लिखने को तड़पती रहेंगी |
तब तक मुझे किन्ही बाबुओं की दया नहीं चाहिए, | तब तक मुझे किन्ही बाबुओं की दया नहीं चाहिए, | ||
− | सुन रहे हैं | + | सुन रहे हैं बाबूलोग तब तक आपलोगों की दया नहीं चाहिए ... |
+ | |||
+ | '''मूल बांग्ला से अनुवाद : प्रशान्त विप्लवी''' | ||
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11:14, 3 जुलाई 2022 के समय का अवतरण
मैं जामवनी, दुसाध टोले के
शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ
पत्रकारों ने कहा —
“अरे इतना ही बोल देने से भला कैसे होगा?
तुम इस बार दसवीं में अव्वल आई हो
तुम्हें कुछ और तो बोलना ही पड़ेगा ।"
टीवी वालों ने पूछा,—”तुम मज़दूर की बेटी,
लोगों के यहाँ चौका-बर्तन करके
दसवीं में अव्वल कैसे आई ?
इन्हीं बातों को तुम्हें खुलकर बताना है ।”
पंचायत की अनी भाभी, ग्राम-प्रधान, उप-प्रधान, एमएलए, एमपी
सबलोग टूट पड़े मेरे झोंपड़ी वाले घर में
जामवनी स्कूल के हेडमास्टर ने
भोरे-भोर टिन का गेट खोलकर
हाँकते-पुकारते हमारी नींद तोड़ दी —
जब उन्होंने पहली बार यह ख़बर सुनाई
उस समय मैं माँ से लिपटकर सोई हुई थी
उस झोपड़ी के घनघोर अन्धेरे में
हेडमास्टर साब को देखते ही
आँखें मिंचमिंचाते हुए माँ और मैं दोनों
हतवाक होकर यही सोचने लगे —
क्या हम सपना देख रहे हैं
सर बोल उठे — अरे ये सपना नहीं,
बिलकुल भी सपना नहीं है, सच है
सुनते ही खूब रोए थे हम माँ-बेटी
आज बाप ज़िन्दा होता
उस आदमी को मैं दिखा पाती, दिखा पाती बहुत कुछ —
मेरे सीने के भीतर
जिस आदमी ने तेज़ रोशनी का संध्या दीप जलाया था
वही रोशनी आज किस तरह
इस झोपड़ी को रोशन कर रही है
मैं दिखा पाती उन्हें
आप लोग कह तो रहे हैं —
“तुम लोगों की तरह लड़कियाँ अगर उठकर आ पातीं,
तभी भारतवर्ष उठ सकता है”,
बात तो बिलकुल सही है, लेकिन
उठकर आने का रास्ता ही कहाँ तैयार है यहाँ
खड़े पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना क्या आसान है इतना
बहुत ताक़त लगती है, बहुत ओज चाहिए
मैं जामवनी दुसाध टोले की शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ
जबसे होश सम्भाला है, तभी से सुनती आई हूँ
“बेटी है कि माटी”
दादी बोलती थी
दूसरो के घर बर्तन-बासन ही तो करना है
फिर क्या पढ़ना-लिखना
गाँव के बाबू लोग बोलते थे
तुम दुसाध टोले की बेटी, बर्तन-बासन के अलावा
और भला, क्या चारा
पर बाप बोलता था
“देख साँझली – मन को दुखाओगी तो हार जाओगी
सुनो जो जैसा भी बोल रहा है, बोलने दो
सारी बातें एक कान से सुन लो
और दूसरी कान से निकाल दो
उस समय बाबू पाड़ा के दे घर में
माँ बर्तन-बासन करती थी
क्षय रोग के बावजूद माँ की देह टूटी नहीं थी उतनी
बीच-बीच में कभी बुख़ार अवश्य आता था,
बुख़ार आने पर माँ
चुपचाप आँगन में चटाई बिछाकर सो जाती
याद है वो एक जाड़े की सुबह थी
झिलमिलाती हुई धूप खिली थी
बिल्कुल झींगे के फूलों-सी पीली धूप
मैं धूप की तरफ पीठ करके हिलते हुए पढ़ रही थी
इतिहास ....
सातवीं क्लास के सामन्ती राजाओं का इतिहास
दे घराने की बहू ने कई बार लोगों से हाँक भिजवाई थी
माँ को बुखार है लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते
हमारी बूढ़ी दादी तब ज़िन्दा ही थी
फटे हुए कम्बल ओढ़कर बीड़ी धोंक रही थी बुढ़िया
आख़िर बूढ़ी ने मुझे पढ़ाई से उठवा ही दिया
माँ के काम के लिए मुझे बाबू लोगों के घर भेज दिया
पुरानी चहारदीवारी से घिरा विशाल आँगन –
जितना बड़ा दर-दलान,
उतना ही बड़ा बरामदा
सब जगह झाड़ू-पोछा करके वापिस आ रही थी
दे घर की बहू ने नहीं छोड़ा ढेर सारा जूठा बर्तन
मेरे सामने लाकर रख दी । मैं बोली —
“मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी”
बाबू के बहू को बहुत गुस्सा आया —
“क्या बोली, जितनी बड़ी लड़की नहीं उतनी बड़ी बात,
जानती हो
तुम्हारी माँ , तुम्हारी माँ की माँ , उसके माँ की माँ
सबलोग अब तक
हमलोगों का जूठा धोकर गुज़र गईं
और तुम हमलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोओगी
पर मैंने बोल दिया —
“हाँ , मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी”
आप किसी और को ढूँढ़ लो, मै चली ..
और बोलकर बाबू की बहू के सामने से गटगट गटगट कर
मैं लौट आई
उसके बाद उन बातों को लेकर बहुत झमेला हुआ
बेला डूबते ही बाप
महतो लोगों का धान काटकर घर लौटा
दो पन्ने की पढ़ाई करने वाली
इस छोटी पोती के मुँह से इतनी बड़ी-बड़ी बातें
सातकहन की तरह समझाया था बुढ़िया ने
माँ एकदम चुप थी
अगहन महीने के संध्या बेला में
आँगन में आग जलाई गई है
माँ हाथ-पाँव सेंक रही थी
घने बालों वाले पिता का पत्थर-सा सपाट चेहरा
आग में चमक उठा था
मैंने बाप का वैसा चेहरा कभी नहीं देखा
मेरे बाप ने उस रोज़ माँ और बुढ़िया दादी के सामने
अपने पास बुलाया
माथे पर हाथ फेरते हुए ओजस्वी स्वर में बोले –
“जो भी किया ! बढ़िया किया
सुन, तुम्हारी माँ, उनकी माँ, उनके माँ की माँ –
सब ने बर्तन-बासन की है बाबुओं के घर में
पेट भरने के लिए मेहनत की
लेकिन उससे हुआ क्या
लेकिन उससे हुआ क्या, इस बात को याद रखना साँझली,
तुमने बर्तन-बासन करने के लिए जन्म नहीं लिया है
चाहे जितना बड़ा लाट साहेब ही क्यों न हो
किसी के सामने सिर झुकाकर
अपने इस स्वाभिमान को मत बेच देना
इसी स्वाभिमान के लिए तुझे पढ़ना-लिखना सिखाया है
नहीं तो, हम जैसे पेट पालने वालों के घर में है ही क्या ?”
मैं जामवनी के दुसाध टोले की शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ
कबके उस सातवे क्लास की वो बात सोच रही हूँ
कि अख़बार वालों और टीवी वालों के सामने क्या बोलूँ
ताड़ के पत्तों से घिरे गोबर लिपे उस आँगन में लोगों का हुजूम भरा है
इस बीच साइरन बजाते हुए, जीप गाड़ी पर सवार
आगे-पीछे पुलिस लेकर मंत्री दौड़े आए —
“कहाँ है रे साँझली कोइरी, कहाँ है” — बोलते हुए
बन्दूकधारी पुलिस लेकर सीधे हमारे झोपड़ी वाले घर में ।
हेडमास्टर बोल उठे,— ”प्रणाम कर, साँझली, प्रणाम कर ।”
मंत्री ने पीठ थपथपाई, थपथपाते हुए बोला —
“तुम लोगों के घर बर्तन-बासन करते हुए दसवीं में अव्वल आई हो
इसलिए तुम्हें ही देखने आया हूँ, सच में बहुत ग़रीबी है
तुम जैसी लडकियाँ आगे बढ़े
इसलिए तो हमारी पार्टी है, इसलिए हमारी सरकार है
— ये लो, दस हज़ार रूपये का चेक, अभी लो
सुनो, हमलोग तुम्हें और भी फूल और सम्मान देंगे
और भी रूपये मिलेंगे
अरे टीवी वाले, अख़बार वाले कौन हैं, इस तरफ़ आओ“
उसी समय छोटे-बड़े कैमरे झलक उठे
झलक उठा मंत्री का चेहरा, नहीं- नहीं, मंत्री नहीं, मंत्री नहीं
झलक उठा मेरे बाप का चेहरा
लहकते हुए आग से झलकते मनुष्य का चेहरा
मैं उसी समय बोल उठी –
“नहीं-नहीं, ये रूपये मुझे नहीं चाहिए,
और आपने जो फूल और सम्मान देने की बातें की, वो भी नहीं चाहिए“
मंत्री थूक निगलने लगा
गाँव के दे घराने का बड़ा बेटा अभी पार्टी का बड़ा नेता बन गया है
भीड़ को चीरते हुए सामने आकर बोला –
“क्यों, क्या हुआ रे साँझली,
तू तो मेरे घर की नौकरानी थी
बोल तुझे क्या चाहिए, बोल खुलकर बोल तुझे क्या-क्या चाहिए”
बोली —
मेरे मोहल्ले में और भी सौ-सौ साँझली है
और भी शिबू दुसाध की लड़कियाँ हैं ग्राम-गंज में
वे लोग जब तक अन्धेरे में रहेंगी, जब तक वे पढ़ने-लिखने को तड़पती रहेंगी
तब तक मुझे किन्ही बाबुओं की दया नहीं चाहिए,
सुन रहे हैं बाबूलोग तब तक आपलोगों की दया नहीं चाहिए ...
मूल बांग्ला से अनुवाद : प्रशान्त विप्लवी