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"पद्मनी / अर्जुन देव चारण" के अवतरणों में अंतर

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कोई सवाल मेरे पति से
 
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जिसकी मर्यादा रखने
 
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मरना पड़ा मुझे।</Poem>
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'''अनुवाद : नीरज दइया'''</Poem>

12:30, 9 जुलाई 2022 के समय का अवतरण

चितौड़ की रानी पद्मनी। राजा रतनसिंह की पत्नी। विलक्ष्ण रूपवती सर्वगुण संपन्न। राजा रतनसेन अपनी पटरानी प्रभावती के दिए ताने के कारण पद्मनी से विवाह का निश्चय करता है। पद्मवती के भाई सिहंल द्वीप के राजा ने भी यह प्रण लिया हुआ है कि जो उसे शतरंज में हरा देगा उससे पद्मनी का विवाह करूंगा। इस भांति स्त्री जीवन के निर्णय में एक शतरंज की बाजी या एक ताना?
कालांतर में बादशाह अलाउद्दीन खिलजी चितौड़ पर पद्मनी को हासिल करने के लिए आक्रमण करता है। लंबे समय तक कुछ हासिल नहीं होने अप्र वह प्रस्ताव रखता है कि उसे पद्मनी का चेहरा आईने में दिखा दिया जाए, पद्मनी का पति यह शर्त मान लेता है। वह जब बादशाह को वापसी में उसके डेरे पहुंचाने जाता तब छल से चितौड़ के राजा को अलाउद्दीन गिरफ्तार कर लेता है और पद्मनी को सौंपने की शर्त चितौड़ के सामने रखता है। पद्मनी अपनी चतुराई से अपने पति के प्राणों की रक्षा कर बादशाह को मात देती है। अंततः युद्ध होता है। उसमें राजा रतनसिंह वीरगति को प्राप्त होते हैं और पद्मनी जौहर कर लेती है। पर पद्मनी को क्यों मरना पड़ा? वह पीड़ा जो पद्मनी ने भोगी उसे अभिव्यक्त करती है यह कविता।

ताने की सवारी
जिससे विवाह करने को आता है भरतार
शतरंज की गोटियों के बल
तय होता है जिसका जीवन
वह अपनी मांग में
सिंदूर नहीं
अगन भरा करती हैं
यह मुझे जान लेना था
गोटियां बिछते ही।

जमीन बदलने से
काठ नहीं बदलता अपना गुण
राज बदलने से
क्रोध नहीं बदलता अपनी तासीर
संबंध बदलने से
मर्द नहीं बदलता अपना गुमान,
अपने पुरुषत्व के गर्व में
जिसने लिए थे फेरे
वह मर्द
किस घड़ी हो जाए निर्बल
यह मुझे जान लेना चाहिए था
उससे मिलते ही
आने वाली पहली सांस से ही।

क्या दर्पण में आने पर
चेहरा हो जाता है दूसरा?
क्या दर्पण में आने से
औरत नहीं रहती औरत?
मैं थी तुम्हारा दर्पण
जिसमें सिर्फ तुम दिखाई देते थे
पर तुम
नहीं जान सके
इस दर्पण का मन
तुमने इस दर्पण को रख दिया
दूसरे के सामने।
दर्पण को दर्पण के सामने करने पर
पैदा होती है एक कौंध
उस कौंध की चमक
हजारों वर्षों तक फैली रहती है
समय के अरण्य पर।
हजारों ज्वालामुखी भी
उससे नहीं कर सकते प्रतिस्पर्धा
समय को खुरदरा करती
वह कालिमा
बेलती है जो रोटियां
आने वाली पीढ़ियां
उसको इतिहास कह कर
चबाती रहती है।

अपने चारों तरफ
ऊंचे-ऊंचे परकोटे बनवाने वाला
क्यों नहीं जान सका
यह भेद
कि एक छोटी सी खिड़की
मिटा देती है
बड़े-बड़े गढ़ों का गुमान,
फिर उस सुलतान को
वह खिड़की तुमने क्यों दिखाई?
तुमने अपने गढ़ पर
लगवाए लोहे के कपाट
किंतु मेरे झरोखे की खिड़की
बिना कपाटों के क्यों छोड़ दी?
खुले दरवाजों
घर में प्रवेश कर जाते हैं
सांप, बिच्छू, कुत्ते, गोधे
चोर-लूटेरे
क्या तुम
नहीं जानते थे यह बात?
तुमसे मिलकर
खुले मेरे भाग्य के द्वार
मैंने मनाए सगुन
हृदय-द्वार खोल
ले लिया तुमको भीतर
और बंद कर दिए शेष सभी कपाट।

मेरे छत्तीस गुण
छत्तीस जात की औरतों की
ईर्ष्या की लपट
और
छत्तीस जात के मर्दों के मुंह
टपकती लार से बचने को
किसके द्वार जाते?
पानी से बुझती होगी
मद्घिम ज्योति
इन लार की बौछार
यह अग्नि द्विगुणित हो जाती।

ईश्वर ऐसा रूप किसी को ना दे
जिसे देख
आंखों में प्रेम नहीं
भोग जन्म लेता है।
जहां पीछे छूट जाते हैं
सभी संबोधन
मां, बेटी, बहन, लड़की
ना जाने किस लोक के
रिश्ते थे
जिनके स्पर्श से
मनुष्य पूर्ण पद प्राप्त करता था
इस देह की परिक्रमा के लिए
व्यग्र
बंद आंखें
आकाश का अनंत विस्तार
कैसे देखती।

मुझे जान लेना चाहिए था
उम्र की सीढ़ियां चढ़ते हुए
कि रूप-वृक्ष के पुहुप
सिर्फ बिछाने के काम ही आते हैं
मैंने किसी के शृंगार की इच्छा
मन में क्यों जगाई।

मैंने
मेरे रूप की ज्योति से
रंग दिया था तुम्हारा पहनावा
केसरिया
कि इसी बहाने
तुम्हारी सुगंध से लकदक
रहेगा मेरा चित्त
लो तुम्हारा क्रोध
अंगीकार करती हूं मैं
और तुम धारण करलो मेरा रंग।

मैं जानती हूं कि इस जन्म में
मैंने नहीं किया ऐसा कुछ
जिसका प्रत्युत्तर अग्नि की लपटों को देना पड़ता
किंतु औरत तो आप करमी होती हैं राजा
फिर अपने कर्मों का दोष
तुम्हें कैसे दूं?
तुम पिता के कर्मों से बंधे
मेरे कर्मों को कैसे अंगीकार करते।
वह मुझे
हरम में बंद करने आया था
तुमने मुझे दर्पण में बंद कर
परोस दिया उसके आगे,
दोनों जगह चौखट है
जड़ाव है
और है बांधने की लालसा।

मैं तुम्हारे लिए
हमेशा रही एक ‘सौंदर्य’
मुझे घर चाहिए था
तुमने मुझे दी
बावड़ी छलछलाती हुई
जिस में डूब जाते हैं हाथी-घोड़े
पर जहां से पिनहारियां
हमेशा खाली जाया करती हैं।

यदि अलाउद्दीन आया था
दूसरों के उकसाए
तो तुम्हें क्रोध क्यों आया
तुम भी तो आए थे
दूसरों के उकसाए
लेने को मुझे।
मेरे जीवन में
तुम्हारा और अलाउद्दीन का पलड़ा
एक जैसा ही है।

मुझे जान लेना चाहिए था
हथलेवा जोड़ते समय
कि मेरा यह रूप
और मेरे छत्तीस गुण
हमेशा उकसाएंगे दूसरों को
और
दूसरों के उकसाएं
दूसरे ही आएंगे
मेरे जीवन में।

मुझे जान लेना चाहिए था
कि मैं
मर्दों को उकसाने का
एक साधन हूं।
मेरी साध थी
कि मैं बनूं साध्य
पर साधन कभी
साध्य नहीं बन सकता
यह मुझे जान लेना चाहिए था
पहली ही रात।

अग्नि को
कोई कब सौंपता है
अपनी देह
पर जब भाई सौंप देते हैं
बाप सौंप देता हैं
पति सौंप देता है
तब कोई क्या करे?
मैंने
फेरे खाए अग्नि से
मुझे
जो लेने आया था
उसके हृदय में भी
लगी हुई थी आग
अपनी पटरानी के बोलों की
ऐसे
आग और आग के बीच
हुआ थ एक करार।

पीढ़ियां गाएंगी मेरा यशोगान
जिसने अपना पति धर्म निभाने के वास्ते
सौंप दी अपनी देह अग्नि को
पर कोई नीं पूछेगा
कोई सवाल मेरे पति से
जिसकी मर्यादा रखने
मरना पड़ा मुझे।

अनुवाद : नीरज दइया