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सुनसान राह पर, तंग सी पगडण्डी पर
जहाँ पड़ी रहती है सुनहली रेत
क्यों घूम रहे हो तुम यहाँ, इतने चिन्तित
सारा दिन अवसाद में गहरे डूबे ?
यह रहा बुढ़ापा तेज़ आँखों वाली डायन की तरह
छिपा बैठा है सरई के ढाँचे के पीछे ।
झाड़ के बीच सारा दिन टहलता
ध्यान से देखता रहता है तुम्हें ।
काश, याद करते तुम, किस तरह सफ़र की रातों में
संघर्ष में दमकते तुम्हारे जीवन ने
तुम्हारे कन्धों पर रखे थे
कोमल हाथ और शीतल पंख ।
उस स्नेहिल दृष्टि, क्लान्त और सावधान दृष्टि ने
अपने आलोक से भर दिया था तुम्हारा हृदय,
लेकिन तुमने गहराई और विवेक से सोचा
और वापिस चले आए अपनी पुरानी लीक पर ।
जीवन की राह पर सावधानी से चलने के
अच्छी तरह याद थे तुम्हें पुराने नियम ।
सावधान और सहमा-सहमा तुम्हारा विवेक
इस सुनसान राह पर दिशा दिखाता रहा तुम्हारे जीवन को ।
रास्ता चला गया आगे कहीं एकान्त में
उधर कहीं, गाँव की पृष्ठभूमि में
पूछा नहीं उसने तुम्हारा या तुम्हारे पिता का नाम
न ही ले गया वह तुम्हें सोने के महलों के भीतर ।
अपनी विलक्षण बुद्धि का प्रयोग किया तुमने
किन्हीं व्यर्थ और अर्थहीन कार्यों में ।
चमकता था जो हीरे की तरह कभी
निष्प्रभ पड़ गई अब उसकी छवि ।
और अब चले आओ, हिसाब करते रहो,
छिपाते रहो अपने विक्षिप्त विचार,
देखो सरई की छाया के नीचे किस तरह
मुस्कुरा रहा है तुम्हारा अपना ही बुढ़ापा ।
खुले रास्ते से नहीं, तुम चलते रहे तंग लीक पर
ढूँढ़ नहीं पाए तुम अपनी राह,
जीवनभर तुम अतिरिक्त सावधान रहे, रहे चिन्तित अधिक ही
मालूम नहीं पड़ा तुम्हें कभी — यह सब कुछ आख़िर किसलिए !
1958
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
НИКОЛАЙ ЗАБОЛОЦКИЙ
1958