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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=रमेश क्षितिज
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− | |अनुवादक=
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− | |संग्रह=अर्को साँझ पर्खेर साँझमा
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− | <poem>
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− | '''सहिद (रातो–१)'''
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− | इतिहासका पन्नाका क्रममा
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− | टाँगिएको त्यो जिसस
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− | क्यालेन्डरको मात्र एक दिन उसको
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− | अहो ! मान्छे मरेपछि
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− | कति कमजोर हुँदोरहेछ !
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− | '''इतिहास (कालो–१)'''
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− | आफ्नै छोराको मृत्युको खबर सुनेर पनि
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− | मञ्चमा नाच्न बाध्य कुनै नर्तकीजस्तो भएर
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− | घन्टाघर साक्षी छ !
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− | हामी उनै वीर पुर्खाका
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− | बहादुर सन्तानहरू हांै ।
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− | '''सम्झना (निलो–१) '''
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− | वर्षौंदेखि
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− | तिमीलाई उही रूपमा पाइरहेछु, गुमाइरहेछु
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− | पखेरोको सिरानी हालेर मस्त निदाएका
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− | गोरेटोछेउ उभिएर
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− | ती गोठालाले फुकेका मुरलीका स्वरमा
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− | कतै तिम्रो आवाज सुनिरहेको हुन्छु
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− | र उग्रयारहन्छ मेरो सम्झना– अतीतको
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− | हरियो चरनमा
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− | यी हेर स्मृतिका छरपष्ट तर नओइलिने
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− | झन्झन् बढ्दै जाने कलिला दुबोहरू ।
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− | '''आग्रह (सेतो–१) '''
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− | बाहिर अँध्यारो छ – यसबेला
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− | घरसम्म पुग्छु भन्छौ
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− | आफूभित्र उज्यालो बालेर हिँड्नु,
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− | त्यसलाई हुरीले केही गर्दैन
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− | झरीले फरक पर्दैन
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− | बाटो, बाटो त हिँड्नेहरूलाई त हो !
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− | '''चश्मा (कालो–२)'''
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− | कालो चश्मा लगाउने मान्छे
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− | देख्छ – धमिला पहाड
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− | अँध्यारो बाटो र कालो अंगारको झरी
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− | खाली कालो घाम देखेको उसले
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− | देख्दैन – छेउबाटै
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− | हिँडिरहेका कर्मशील कमिलाहरूको पंक्ति
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− | र इन्द्रेणीजस्तो रंगीन जिन्दगी ।
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− | '''प्रवाह–चिन्तन (रातो–२)'''
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− | बग्न त जसरी पनि बग्छु म
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− | नदी भएर बगूँ
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− | झरी वा बतास भएर बगूँ
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− | सपनामा पनि जब कुनै सपना देखिरहेको हुन्छु
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− | तर म बगिरहेकै हुन्छु !
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− | '''समय (निलो–२)'''
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− | कौसीमा सुकाएको
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− | चित्रको पहाड
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− | रातभरिको झरीले बगाएर लगेछ !
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− | बिहानमा – टोलाइरहेछ विचरा चित्रकार
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− | फेरि त्यस्तो चित्र
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− | बन्न पनि सक्छ, नबन्न पनि सक्छ !
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