"अब सोचा है (मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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दूर, बहुत दूर तुम रहते हो, हर साँस के साथ हम पुकारा करें । | दूर, बहुत दूर तुम रहते हो, हर साँस के साथ हम पुकारा करें । | ||
पास, बहुत पास जो आते रहे, उम्रभर उनसे सिर्फ़ किनारा करें। | पास, बहुत पास जो आते रहे, उम्रभर उनसे सिर्फ़ किनारा करें। | ||
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न खोकरके रोएँ, न पाकर हँसे, दाँव ज़िन्दगी का यों ही हारा करें। | न खोकरके रोएँ, न पाकर हँसे, दाँव ज़िन्दगी का यों ही हारा करें। | ||
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अब सोचा है हम खुद को ही सज़ा देंगे | अब सोचा है हम खुद को ही सज़ा देंगे | ||
तुम्हारे आने तक अपनी हस्ती भी मिटा देंगे। | तुम्हारे आने तक अपनी हस्ती भी मिटा देंगे। | ||
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ख़ुद को ही अपनी तरफ़ से दग़ा देंगे हम। | ख़ुद को ही अपनी तरफ़ से दग़ा देंगे हम। | ||
-0-13-05-1981 ( गल्प भारती अक्तु-81) | -0-13-05-1981 ( गल्प भारती अक्तु-81) | ||
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संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं, | संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं, | ||
टूट-टूटकर शिखर धूल में मिलजाया करते हैं। | टूट-टूटकर शिखर धूल में मिलजाया करते हैं। | ||
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हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं । | हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं । | ||
-0- गल्प भारती अक्तुबर 81,आकाशवाणी अम्बिकापुर-20-12-99 | -0- गल्प भारती अक्तुबर 81,आकाशवाणी अम्बिकापुर-20-12-99 | ||
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मैं अकेला , प्रलत बेला में भी चलता जा रहा | मैं अकेला , प्रलत बेला में भी चलता जा रहा | ||
आग की लहरों पर खुश हो उछलता जा रहा । | आग की लहरों पर खुश हो उछलता जा रहा । | ||
है साँस में तूफ़ान प्राणों में उमड़ती बिजलियाँ | है साँस में तूफ़ान प्राणों में उमड़ती बिजलियाँ | ||
धरती के मस्तक का इतिहास बदलता जा रहा । | धरती के मस्तक का इतिहास बदलता जा रहा । | ||
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रोम-रोम महका देती , मुस्कान तुम्हारी | रोम-रोम महका देती , मुस्कान तुम्हारी | ||
बन गई प्राण-डोर, नन्ही-सी जान तुम्हारी । | बन गई प्राण-डोर, नन्ही-सी जान तुम्हारी । | ||
सपनों में खोई-खोई -सी उनींदे नयन | सपनों में खोई-खोई -सी उनींदे नयन | ||
हैं खिलते हुए यौवन की पहचान तुम्हारी । | हैं खिलते हुए यौवन की पहचान तुम्हारी । | ||
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आलिंगन की व्याकुलता में खोई बाहें | आलिंगन की व्याकुलता में खोई बाहें | ||
तपते सीने में और तपन भर देती है | तपते सीने में और तपन भर देती है | ||
पिघला होगा वक्ष प्यार की ऊष्मा पाकर | पिघला होगा वक्ष प्यार की ऊष्मा पाकर | ||
होंठों से छूकर सब अपना कर लेती है। | होंठों से छूकर सब अपना कर लेती है। | ||
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कौन तोड़े ज़िन्दगी की तन्हा खामोशी | कौन तोड़े ज़िन्दगी की तन्हा खामोशी | ||
हर मनुष्य भीतर से बहुत परेशान है । | हर मनुष्य भीतर से बहुत परेशान है । | ||
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दिलो- दिमाग़ में गुसा हुआ शैतान है । | दिलो- दिमाग़ में गुसा हुआ शैतान है । | ||
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तन बहुत बार बना है योगी, पर मन योगी हो नहीं पाया । | तन बहुत बार बना है योगी, पर मन योगी हो नहीं पाया । | ||
जहाँ बँधी कोई डोर नेह की, बस वहीं पर भरमाया। | जहाँ बँधी कोई डोर नेह की, बस वहीं पर भरमाया। | ||
सुधियों ने दुलराया कितना, लेकरके अपने आँचल में। | सुधियों ने दुलराया कितना, लेकरके अपने आँचल में। | ||
− | छूट गया जब छोर हाथ से,रहे | + | छूट गया जब छोर हाथ से,रहे पकड़ते केवल छाया । |
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लेकर तुम्हारी याद किधर जाएँ हम | लेकर तुम्हारी याद किधर जाएँ हम | ||
यह मन होता अब तो कि मर जाएँ हम । | यह मन होता अब तो कि मर जाएँ हम । | ||
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आँखों में रूप प्यारा भर जाएँ हम ॥ | आँखों में रूप प्यारा भर जाएँ हम ॥ | ||
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याद कर सुधियाँ सजल, पलभर कभी रोते नहीं। | याद कर सुधियाँ सजल, पलभर कभी रोते नहीं। | ||
दर्द की इस भेंट को, हम उम्रभर ढोते नहीं। | दर्द की इस भेंट को, हम उम्रभर ढोते नहीं। |
10:11, 19 सितम्बर 2022 का अवतरण
10
दूर, बहुत दूर तुम रहते हो, हर साँस के साथ हम पुकारा करें ।
पास, बहुत पास जो आते रहे, उम्रभर उनसे सिर्फ़ किनारा करें।
मुट्ठीभर धूल है अपना मुक़द्दर , इसी के सहारे अब गुज़ारा करें।
न खोकरके रोएँ, न पाकर हँसे, दाँव ज़िन्दगी का यों ही हारा करें।
-0-29-4-81
11
अब सोचा है हम खुद को ही सज़ा देंगे
तुम्हारे आने तक अपनी हस्ती भी मिटा देंगे।
तुमको कभी चाहकर भी दग़ा न दे पाए हम
ख़ुद को ही अपनी तरफ़ से दग़ा देंगे हम।
-0-13-05-1981 ( गल्प भारती अक्तु-81)
12
संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं,
टूट-टूटकर शिखर धूल में मिलजाया करते हैं।
मरुभूमि में सहचरी बन , सरिता हरियाली भरती
हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं ।
-0- गल्प भारती अक्तुबर 81,आकाशवाणी अम्बिकापुर-20-12-99
13
मैं अकेला , प्रलत बेला में भी चलता जा रहा
आग की लहरों पर खुश हो उछलता जा रहा ।
है साँस में तूफ़ान प्राणों में उमड़ती बिजलियाँ
धरती के मस्तक का इतिहास बदलता जा रहा ।
14
रोम-रोम महका देती , मुस्कान तुम्हारी
बन गई प्राण-डोर, नन्ही-सी जान तुम्हारी ।
सपनों में खोई-खोई -सी उनींदे नयन
हैं खिलते हुए यौवन की पहचान तुम्हारी ।
15
आलिंगन की व्याकुलता में खोई बाहें
तपते सीने में और तपन भर देती है
पिघला होगा वक्ष प्यार की ऊष्मा पाकर
होंठों से छूकर सब अपना कर लेती है।
16
कौन तोड़े ज़िन्दगी की तन्हा खामोशी
हर मनुष्य भीतर से बहुत परेशान है ।
हड्डियों के ढेर में भरा कितना ग़ुरूर
दिलो- दिमाग़ में गुसा हुआ शैतान है ।
-0-(21-9-1981)
17
तन बहुत बार बना है योगी, पर मन योगी हो नहीं पाया ।
जहाँ बँधी कोई डोर नेह की, बस वहीं पर भरमाया।
सुधियों ने दुलराया कितना, लेकरके अपने आँचल में।
छूट गया जब छोर हाथ से,रहे पकड़ते केवल छाया ।
-0-25-9-1981)
18
लेकर तुम्हारी याद किधर जाएँ हम
यह मन होता अब तो कि मर जाएँ हम ।
लगी है कलेजे से तस्वीर तेरी
आँखों में रूप प्यारा भर जाएँ हम ॥
-0-(06-10-1981)
19
याद कर सुधियाँ सजल, पलभर कभी रोते नहीं।
दर्द की इस भेंट को, हम उम्रभर ढोते नहीं।
नहाता कैसे भला, हर रोम रातरानी में
प्राणों में पराग बन, जो तुम बसे होते नहीं।
-0-9-12- 81( सुकवि विनोद जनवरी 82)