[[Category:सोहनलाल द्विवेदी]][[Category:कविताएँ]]{{KKGlobal}}{{KKSandarbhKKRachna|लेखकरचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी|पुस्तक=वासंती}}{{KKPrasiddhRachna}}|प्रकाशक=इंडियन प्रेस प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद{{KKCatKavita}}{{KKVID|वर्षv=|पृष्ठ=PE7KuPcPGDA}}<poem>युग युग से है अपने पथ पर देखो कैसा खड़ा हिमालय! डिगता कभी न अपने प्रण से रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!
युग युग जो जो भी बाधायें आईं उन सब से है अपने पथ पर<br>देखो कैसा खड़ा ही लड़ा हिमालय!<br>, डिगता कभी न अपने प्रण इसीलिए तो दुनिया भर में हुआ सभी से<br>रहता प्रण पर अड़ा बड़ा हिमालय!<br><br>
जो जो भी बाधायें आईं<br>अगर न करता काम कभी कुछ उन सब से ही लड़ा रहता हरदम पड़ा हिमालय,<br>इसीलिए तो दुनिया भर में<br>भारत के शीश चमकता हुआ सभी से बड़ा नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!<br><br>
अगर खड़ा हिमालय बता रहा है डरो न करता काम कभी कुछ<br>आँधी पानी में, रहता हरदम पड़ा हिमालय<br>खड़े रहो अपने पथ पर तो भारत के शीश चमकता<br>नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालयसब कठिनाई तूफानी में!<br><br>
खड़ा हिमालय बता रहा है<br>डरो डिगो न आँधी पानी में,<br>खड़े रहो अपने पथ पर<br>प्रण से तो –– सब कठिनाई तूफानी मेंकुछ पा सकते हो प्यारे! तुम भी ऊँचे हो सकते हो छू सकते नभ के तारे!!<br><br>
डिगो न अपने प्रण से तो ––<br>सब कुछ पा सकते हो प्यारे!<br>तुम भी ऊँचे हो सकते हो<br>छू सकते नभ के तारे!!<br><br> अचल रहा जो अपने पथ पर<br>लाख मुसीबत आने में,<br>मिली सफलता जग में उसको<br>जीने में मर जाने में! <br><br/poem>