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री चींटी !
तेरे पंख निकले
अब सहन नहीं होता ।
पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध चेहरे
अब सहन नहीं होता,
अलमारी, प्लेट, बरामदा, किताब, उदास मेज़पोश,
इस गहन रात में छीन लोगी क्या मेरी शैय्या भी ?
चींटी !
घर कहाँ है री तेरा ?
उड़ जा वहीं पंख लगा,
नहीं तो, कूद पड़ नदी में,
या जलाकर आग बड़ी कोई, नाच घेरकर,
पंख निकले, निकले पंख तेरे,
री चींटी !
अब सहन नहीं होता ।
मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित