"गुरू-शिष्य सम्वाद / शंख घोष / शेष अमित" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शंख घोष |अनुवादक=शेष अमित |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 64: | पंक्ति 64: | ||
पहला व्यक्ति — | पहला व्यक्ति — | ||
− | + | पुत्प्ररोदयादयः जातंत्र ? | |
− | जीवन दे सकती है,तुम्हारी ही कोई प्रभा | + | प्रजातंत्र है तंत्र केवल, |
+ | प्रजा सिर्फ शोभा | ||
+ | जीवन दे सकती है, | ||
+ | तुम्हारी ही कोई प्रभा । | ||
− | + | दूसरा व्यक्ति — | |
+ | तब भी देखता हूँ | ||
+ | अपने ही वर्ग के लोगों को | ||
+ | बेपरवाह । | ||
− | + | पहला व्यक्ति — | |
− | याद रखना स्मृति रही है सदा दुर्बल,कौन खोजता है साथ किसी पहचान में ! | + | ये सब तो घर की बातें हैं । |
− | सब जीते हैं वर्तमान | + | याद रखना |
− | + | स्मृति रही है सदा दुर्बल, | |
− | + | कौन खोजता है साथ किसी पहचान में ! | |
− | + | सब जीते हैं वर्तमान में । | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | दूर से ही करते हैं भीड़ से प्यार । | |
+ | जो हैं एकाकी, | ||
+ | उनसे नहीं है डर कोई । | ||
+ | |||
+ | उसके बाद आते | ||
+ | एक-एक को कर दो | ||
+ | भीतर-भीतर ही अकेला | ||
+ | फिर ग़ौर से देखो कितने सिर हैं | ||
+ | किनके कन्धों पर | ||
+ | परस्पर मरता हुआ हर एक | ||
+ | वह हो जाए अकेला | ||
+ | तुम्हारे ही दोनों हाथों में बँधे धागों से झूलते | ||
+ | आदमी जैसा ही दिखता — | ||
+ | आत्मगत सुख और अनजाने आतंक से | ||
+ | मान लेंगे सभी | ||
+ | कोई भी अन्याय । | ||
+ | |||
+ | बातचीत करते हुए चल रहे हैं दोनों, | ||
+ | दोनों की उँगली बन्दूक के घोड़े पर है। | ||
'''मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित''' | '''मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित''' | ||
</poem> | </poem> |
02:21, 23 अक्टूबर 2022 का अवतरण
दो व्यक्ति बातचीत करते हुए चल रहे हैं
दूसरा व्यक्ति —
और जो बातें करना चाहते हैं ज़्यादा,
जो किसी भी प्रसंग पर बोलना चाहते हैं,
उन्हें क्या दण्डित करूँ जीवन-भर ?
किसी भी बहाने ?
पहला व्यक्ति —
कभी नहीं । नहीं, कभी नहीं ।
बल्कि, उन्हें मीठे बोल से, प्यार से अपने पास खींचो ।
बून्द बनाकर रख दो अपने उपहारों के भार से ।
आत्म-विस्मृत
शब्दों के विकल्प मिलेंगे उन्हें ।
अगर वे कुछ कहना भी चाहें तो कहेंगे मन-ही मन ।
दूसरा व्यक्ति —
और जो स्पष्ट विरोधी हैं ?
पहला व्यक्ति —
विरोधी ?
विरोधी भला कैसे रहेंगे,
तुम्हारे स्वच्छ राज में ?
तुम्हारे समृद्ध राज-पाट में ?
दूसरा व्यक्ति —
समृद्ध ?
पहला व्यक्ति —
यह नहीं ?
हे वत्स ! याद रखो —
समृद्धि जगी रहती है शब्दों के देश में,
भारी आभूषणों में ।
और कुछ नहीं ।
गणित कहानी है मात्र ।
संख्या तत्व से झरती है रेत ।
इसलिए,
तुम जो चाहते हो सुनना,
अमात्य तुम्हें वही सुनायेंगे ।
जो उस पर करते हैं शक़,
उनपर रखते हुए नज़र,
नज़रों से ओझल बनाए रखो !
इसलिये दिखता हुआ कोई रूप
कोई शब्द-अलंकार भी
तुम्हारे राज न्यायधर्म को न कर दे क्षीण ।
कभी दिखती हुई और कभी छुपी हुई नज़र
इस से अधिक नहीं
कोई पूज्य इतिहास ।
दूसरा व्यक्ति —
तब प्रजातन्त्र ?
पहला व्यक्ति —
पुत्प्ररोदयादयः जातंत्र ?
प्रजातंत्र है तंत्र केवल,
प्रजा सिर्फ शोभा
जीवन दे सकती है,
तुम्हारी ही कोई प्रभा ।
दूसरा व्यक्ति —
तब भी देखता हूँ
अपने ही वर्ग के लोगों को
बेपरवाह ।
पहला व्यक्ति —
ये सब तो घर की बातें हैं ।
याद रखना
स्मृति रही है सदा दुर्बल,
कौन खोजता है साथ किसी पहचान में !
सब जीते हैं वर्तमान में ।
दूर से ही करते हैं भीड़ से प्यार ।
जो हैं एकाकी,
उनसे नहीं है डर कोई ।
उसके बाद आते
एक-एक को कर दो
भीतर-भीतर ही अकेला
फिर ग़ौर से देखो कितने सिर हैं
किनके कन्धों पर
परस्पर मरता हुआ हर एक
वह हो जाए अकेला
तुम्हारे ही दोनों हाथों में बँधे धागों से झूलते
आदमी जैसा ही दिखता —
आत्मगत सुख और अनजाने आतंक से
मान लेंगे सभी
कोई भी अन्याय ।
बातचीत करते हुए चल रहे हैं दोनों,
दोनों की उँगली बन्दूक के घोड़े पर है।
मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित