"यादों का शहर / सुनील गंगोपाध्याय / उत्पल बैनर्जी" के अवतरणों में अंतर
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प्यासी धरती पर घनघोर पानी बरसता | प्यासी धरती पर घनघोर पानी बरसता | ||
मैं अपनी अस्थिमज्जा के सार को मिलाकर | मैं अपनी अस्थिमज्जा के सार को मिलाकर | ||
− | रच देता | + | रच देता वृष्टिवन्दना का स्तोत्र |
यदि कविता लिखकर .... | यदि कविता लिखकर .... | ||
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देर तक रोने के बाद | देर तक रोने के बाद | ||
सो गया जो बच्चा | सो गया जो बच्चा | ||
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मैंने जीवन में और कहीं नहीं देखी | मैंने जीवन में और कहीं नहीं देखी | ||
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तिल के फूलों के भीतर | तिल के फूलों के भीतर | ||
− | धीरे-धीरे घुस रहे हैं | + | धीरे-धीरे घुस रहे हैं कम्बलकीड़ों के झुण्ड |
यदि कविता लिखकर .... | यदि कविता लिखकर .... | ||
मलिन छाया में उड़ती जा रही है | मलिन छाया में उड़ती जा रही है | ||
− | हरेक की अपनी-अपनी पृथ्वी | + | हरेक की अपनी - अपनी पृथ्वी |
शहर छोड़कर जब भी | शहर छोड़कर जब भी | ||
− | + | गन्ध की तलाश में जाता हूँ गाँव | |
लगता है किसी और ग्रह का बाशिन्दा हूँ | लगता है किसी और ग्रह का बाशिन्दा हूँ | ||
− | तुम्हारी तकलीफ़ों में मैं चुपके-चुपके रो सकता हूँ | + | तुम्हारी तकलीफ़ों में मैं चुपके - चुपके रो सकता हूँ |
लेकिन वह तो कविता नहीं होगी | लेकिन वह तो कविता नहीं होगी | ||
तुम्हारी दुर्दशा पर प्रतिपक्ष के ख़िलाफ़ | तुम्हारी दुर्दशा पर प्रतिपक्ष के ख़िलाफ़ | ||
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लेकिन वह तो कविता नहीं होगी | लेकिन वह तो कविता नहीं होगी | ||
− | यह एक माया-दर्पण है | + | यह एक माया - दर्पण है |
− | कविता, इसे लेकर कुछ अकेले में खेलने-जैसा | + | कविता, इसे लेकर कुछ अकेले में खेलने - जैसा |
मुझे माफ़ कर देना !! | मुझे माफ़ कर देना !! | ||
21:21, 23 अक्टूबर 2022 के समय का अवतरण
यदि कविता लिखकर
खेत भर धान उगाया जा सकता
मैं ख़ून से लिखता वह कविता
यदि कविता के छन्द से
प्यासी धरती पर घनघोर पानी बरसता
मैं अपनी अस्थिमज्जा के सार को मिलाकर
रच देता वृष्टिवन्दना का स्तोत्र
यदि कविता लिखकर ....
हाय, यदि कविता लिखकर ....
देर तक रोने के बाद
सो गया जो बच्चा
उसके - जैसी दुख की छवि
मैंने जीवन में और कहीं नहीं देखी
यदि कविता लिखकर ....
बुझ चुके चूल्हे के सामने
पेट की सुलगती आग लिए कोई बैठा है
यदि कविता लिखकर ....
तिल के फूलों के भीतर
धीरे-धीरे घुस रहे हैं कम्बलकीड़ों के झुण्ड
यदि कविता लिखकर ....
मलिन छाया में उड़ती जा रही है
हरेक की अपनी - अपनी पृथ्वी
शहर छोड़कर जब भी
गन्ध की तलाश में जाता हूँ गाँव
लगता है किसी और ग्रह का बाशिन्दा हूँ
तुम्हारी तकलीफ़ों में मैं चुपके - चुपके रो सकता हूँ
लेकिन वह तो कविता नहीं होगी
तुम्हारी दुर्दशा पर प्रतिपक्ष के ख़िलाफ़
ग़ुस्से से गरज सकता हूँ
लेकिन वह तो कविता नहीं होगी
यह एक माया - दर्पण है
कविता, इसे लेकर कुछ अकेले में खेलने - जैसा
मुझे माफ़ कर देना !!
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मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी