"रोता हुआ बेदमजनूँ / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल" के अवतरणों में अंतर
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' कोई उम्मीदबर नहीं आती | ' कोई उम्मीदबर नहीं आती | ||
कोई सूरत नज़र नहीं आती ...<ref>अनुवादक ने प्रसंग - अनुकूलता की दृष्टि से ग़ालिब का शेर यहाँ उद्धृत किया है ।</ref> | कोई सूरत नज़र नहीं आती ...<ref>अनुवादक ने प्रसंग - अनुकूलता की दृष्टि से ग़ालिब का शेर यहाँ उद्धृत किया है ।</ref> | ||
+ | कभी नहीं अब वह झाग छोड़ते अपने घोड़े की रास कस पाएगा । | ||
+ | लप - लप् - लप् लहराते हुए शमशीर | ||
+ | और पीछा करते हुए श्वेतरक्षकों का<ref>white guards - सोवियत क्रान्ति के कट्टर दुश्मन और ज़ारशाही के समर्थक फ़ौजी जवान</ref> । | ||
+ | टापों की टप् - टप् - टप् मद्धिम होती हुई | ||
+ | मद्धिम होते - होते एकदम गुम होती हुई । | ||
+ | शाम के धुंधलके में गायब होते जाते शहसवार । | ||
+ | लाल रिसाले के सवार, | ||
+ | आफ़ताबे - सरे - शाम जैसे लाल घोड़े ... | ||
+ | लाल घोड़े .. | ||
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+ | घोड़ों की सरपट चाल की तरह उसमें ज़िन्दगी कौंधी और ग़ायब हो गई, | ||
+ | नदी जो आहिस्ता - आहिस्ता वह रही थी चुप हो गई आख़िरेकार । | ||
+ | दिन डूबने के साथ रंग स्याह पड़ते हुए | ||
+ | सवार की आँखों पर एक उदास झिल्ली छाती हुई | ||
+ | अपने सुनहरी बालों को नीचे गिरने देता हुआ बेदमजनूँ ... | ||
+ | ओ बेदमजनूँ, तुम रो तो नहीं रहे | ||
+ | ओह , बेदमजनूँ , कितने तो तुम ख़ूबसूरत, | ||
+ | एक दूसरी को काटती हुई शाखें | ||
+ | पानी पर उदास परछाइयाँ छोड़ रही हैं, | ||
+ | अरे , तुम रो रहे हो, | ||
+ | बेदमजनूँ प्यारे, | ||
+ | मत रोओ ! मत रोओ !! | ||
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+ | [1928] | ||
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल''' | '''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल''' | ||
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02:53, 29 अक्टूबर 2022 के समय का अवतरण
आहिस्ता - आहिस्ता बहती है नदी ।
सतह के आईनावार सुकून में गिरते - बिखरते
बेदमजनूं के बेतरह बालों तक से बेनियाज ।
एक बाजू डालियों और शाख़ों को काटती - छाँटती हुई
उनकी शमशीरें
आफ़ताबे - सरे - शाम में लाल रिसाला<ref>Red Cavalry - लाल घुड़सवार सेना, रूस की बलशिवीक क्रान्ति से सन्दर्भित</ref>
नुमूदार होता है !
यक् ब यक्
सीधे ज़मीन पर आ गिरे
किसी ज़ख़्मी परिंन्दे की तरह
एक सवार हिलता - डुलता हुआ
ज़मीन पर आ रहता है ।
न कोई आह - कराह , न कोई चीख़ - चिल्लाहट
यहाँ तक कि
घोड़ों को सरपट दौड़ाते आगे बढ़ते
अपने घुड़सवार दोस्तों को मुख़ातिब एक पुकार भी नहीं ।
डबडबाई आँखों , बेचारगी और बेगानगी के दर्म्यान
ताकता रहता है वह
दूर से चमकते और ग़ायब हो जाते हुए घोड़ों के सुमों को
' कोई उम्मीदबर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती ...<ref>अनुवादक ने प्रसंग - अनुकूलता की दृष्टि से ग़ालिब का शेर यहाँ उद्धृत किया है ।</ref>
कभी नहीं अब वह झाग छोड़ते अपने घोड़े की रास कस पाएगा ।
लप - लप् - लप् लहराते हुए शमशीर
और पीछा करते हुए श्वेतरक्षकों का<ref>white guards - सोवियत क्रान्ति के कट्टर दुश्मन और ज़ारशाही के समर्थक फ़ौजी जवान</ref> ।
टापों की टप् - टप् - टप् मद्धिम होती हुई
मद्धिम होते - होते एकदम गुम होती हुई ।
शाम के धुंधलके में गायब होते जाते शहसवार ।
लाल रिसाले के सवार,
आफ़ताबे - सरे - शाम जैसे लाल घोड़े ...
लाल घोड़े ..
घोड़े ...
घोड़ा ...
घोड़ों की सरपट चाल की तरह उसमें ज़िन्दगी कौंधी और ग़ायब हो गई,
नदी जो आहिस्ता - आहिस्ता वह रही थी चुप हो गई आख़िरेकार ।
दिन डूबने के साथ रंग स्याह पड़ते हुए
सवार की आँखों पर एक उदास झिल्ली छाती हुई
अपने सुनहरी बालों को नीचे गिरने देता हुआ बेदमजनूँ ...
ओ बेदमजनूँ, तुम रो तो नहीं रहे
ओह , बेदमजनूँ , कितने तो तुम ख़ूबसूरत,
एक दूसरी को काटती हुई शाखें
पानी पर उदास परछाइयाँ छोड़ रही हैं,
अरे , तुम रो रहे हो,
बेदमजनूँ प्यारे,
मत रोओ ! मत रोओ !!
[1928]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल