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"मैं कहीं नहीं मिलता आजकल / अजय कुमार" के अवतरणों में अंतर
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+ | फैलता हूँ तुम्हारी | ||
+ | मुस्कुराहट की बन के | ||
+ | एक खुशबू | ||
+ | रखा रहता हूँ | ||
+ | तुम्हारी नींदों में | ||
+ | रात की रात | ||
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+ | मैं कहीं नहीं | ||
+ | मिलता आजकल | ||
+ | क्योंकि मैं घुल गया हूँ | ||
+ | दराज़ में रखी तुम्हारी | ||
+ | परफ्यूम की शीशी में | ||
+ | जैसे घुल जाती है | ||
+ | किसी नदी में | ||
+ | दिनभर की धूप | ||
+ | जैसे दरख्तों के नीचे | ||
+ | रोज सिमट जाती है | ||
+ | एक सुरमई शाम | ||
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+ | मैं कहीं नहीं | ||
+ | मिलता आजकल | ||
+ | क्योंकि मुझे अब | ||
+ | दिलचस्प लगता है | ||
+ | अपना होकर रहने से अधिक | ||
+ | तुम्हारा होकर रहना | ||
+ | मैं नहीं चाहता | ||
+ | किसी तारे की तरह | ||
+ | अकेले किसी आकाश में बसना | ||
+ | मुझे मंजूर है | ||
+ | तुम में | ||
+ | सिर्फ तुम में | ||
+ | गुम होकर रहना ...... | ||
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02:50, 17 नवम्बर 2022 के समय का अवतरण
मैं कहीं नहीं
मिलता आजकल
सिर्फ खुलता हूँ
तुम्हारी बातों में बनके
एक और बात
फैलता हूँ तुम्हारी
मुस्कुराहट की बन के
एक खुशबू
रखा रहता हूँ
तुम्हारी नींदों में
रात की रात
मैं कहीं नहीं
मिलता आजकल
क्योंकि मैं घुल गया हूँ
दराज़ में रखी तुम्हारी
परफ्यूम की शीशी में
जैसे घुल जाती है
किसी नदी में
दिनभर की धूप
जैसे दरख्तों के नीचे
रोज सिमट जाती है
एक सुरमई शाम
मैं कहीं नहीं
मिलता आजकल
क्योंकि मुझे अब
दिलचस्प लगता है
अपना होकर रहने से अधिक
तुम्हारा होकर रहना
मैं नहीं चाहता
किसी तारे की तरह
अकेले किसी आकाश में बसना
मुझे मंजूर है
तुम में
सिर्फ तुम में
गुम होकर रहना ......