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"ख़ार को भी गले का हार बना लेते हैं / डी .एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | अपने माशूक़ की इस बात से मैं डरता हूँ | ||
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+ | हम रक़ीबों को वफ़ादार बना लेते हैं | ||
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+ | अपनी कश्ती को नहीं डूबने देते हरगिज़ | ||
+ | हम तो तूफ़ाँ को भी पतवार बना लेते हैं | ||
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+ | जिनको इल्म व हुनर पे अपने भरोसा होता | ||
+ | वो कहीं भी रहें अधिकार बना लेते हैं | ||
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16:39, 15 दिसम्बर 2022 के समय का अवतरण
ख़ार को भी गले का हार बना लेते हैं
एक दुश्मन को भी दिलदार बना लेते हैं
जेा घनी रात में तन्हा हैं निकलते घर से
जुगनुओं से भी वो व्यवहार बना लेते हैं
अपने माशूक़ की इस बात से मैं डरता हूँ
अपने अश्क़ों को भी हथियार बना लेते हैं
जिनके है पास मनोबल वो निहत्थे कैसे
एक तिनके को वो तलवार बना लेते हैं
आप अपनों से भी कर लेते किनारा लेकिन
हम रक़ीबों को वफ़ादार बना लेते हैं
अपनी कश्ती को नहीं डूबने देते हरगिज़
हम तो तूफ़ाँ को भी पतवार बना लेते हैं
जिनको इल्म व हुनर पे अपने भरोसा होता
वो कहीं भी रहें अधिकार बना लेते हैं