भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"प्यार करता हूँ / कैलाश वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
09:49, 18 दिसम्बर 2022 के समय का अवतरण
माथे की आँच से
डोरा सुलगता
मोम नहीं गलता
देह बंद नदिया
उफनाती है
नीली फिर काली फिर श्वेत हो जाती है
दार्शनिक उँगलियों से
चितकबरे फूल नहीं
झरती है राख
असहाय होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक सीढ़ी है नीचे उतरकर
दुनिया कहलाने की ।
सागर के नीचे दरार है
किरन कतराती है।
पत्थर सरका कर
राह निकल जाती है
हवा की चोट से
बाँस झुलस जाता है।
हरा-भरा अंधकार होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक शर्त है
ज़िंदा रह जाने की।