भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद फ़राज़ |संग्रह=खानाबदोश / फ़राज़ }} [[Category:ग़ज़...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:51, 11 नवम्बर 2008 का अवतरण
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
शोलगी - अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख - इतिहास कार
मकाबिर - कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल - ढलान का क्षण