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कौन चाहता है, भला,
अपने घर को यूँहीं छोड़ देना

जब घरों की नीव में
लाल भूरे चूहे घुसने लगते हैं
दीवारों पर फन फैलाए
रेंगने लगते हैं चितकबरे रंग के साँप

आँगन के ऊपर मण्डराने लगती है
चील और कौओं की सेना
छतों पर रोज़
दहाड़े मारकर रोने लगती हैं
काली-बूरी बिल्लियां

तो घरों को छोड़ने का एकमात्र विकल्प ही
बचा रहता है लोगों के पास

जब शाम ढलते दरवाज़ों पर दी गई दस्तक
लोहित पंजे में ढलकर
निकालने लगती है एकसाथ
हमारे देह पिंजरे से
रक्त, गोश्त और धड़कनें तक भी

जब कठिन हो जाता है फ़र्क़ करना
क़ातिलों और परछाइयों के बीच

जब भीड़ चेहराविहीन होकर ढल जाती है
भूखे भेड़ियों के झुण्ड में
और निशाने पर होते हैं कई परिवार

बहुत पीड़ादायक होता है
ख़ुद का और यादों का निवाला बनना
बिन पानी के मछली का जीना, या फिर मरना

कौन, भला, चाहता है
चिनार की छाया को छोड़कर
दहकती रेत पर अपने तलवों के साथ-साथ
अपनी सोच और आत्मा को भी झुलसा देना

लेकिन यदि चिनार के बूढ़े तने की कोठर में
अजगर ने डेरा डाल दिया हो
तो आग उगलता सूरज भी
शीतल छाँव - सा अच्छा लगने लगता है

एक भीड़ वह होती है, जो नफ़रत में ढल जाती है
और एक भीड़ वह
जो अपनी अस्मिता की पोटली सम्भाले
भागने को मजबूर होती है

अपनी जड़ों से कट जाना क्रूरतम कटाक्ष होता है
और अपनी ठूँठ से अलग होना
पेड़ की भयानक मौत

थोड़ा - सा बचने की चाह ही जीवन है
थोड़ा - सा जीने के लिए
अपने को बेघर करना बेहद ज़रूरी

वरना, कौन चाहता है, भला
अपने घर को यूँही छोड़ देना ।