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धूल-भरे दिन / अनीता सैनी

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धूलभरे दिनों मेंन जाने हर कोई क्यों था रुठा ?बदहवासी में सोए स्वप्नशून्य की गोद में समर्पित आत्मानींद की प्रीत ने हर किसी को था लूटाचेतन-अवचेतन के हिंडोले परदोलायमान मुखर हो झूलता जीवनमिट्टी की काया मिट्टी को अर्पितपानी की बूँदों को तरसती हवासमीप ही धूसर रंगों में सना बैठा था भानुपलकों पर रेत के कणों की परतहल्की हँसी मूँछों को देता तावहुक़्क़े संग धुएँ को प्रगल्भता से गढ़ताअंबार मेघों का सजाए एकटक निहारतासाँसें बाँट रहा था उधार।
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