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नितांत निर्जन नीरस
सूखे अनमने
विचार शून्य परिवेश में
पनप जाती है नागफनी,
जीवन की तपिश
सहते हुए भी,
मुस्कुरा उठती है,
महक जाते हैं
देह पर उसके भी,
आशा के सुन्दर सुमन,
स्नेह सानिध्य की,
नमी से,
रहती है वह भी सराबोर,
मरु की धूल-धूसरित आँधी में,
अनायास ही,
खिलखिला उठती है,
अपने भीतर समेटे,
अथाह मानवीय मूल्यों का,
सघन सैलाब,
बाँधती है शीतल पवन को,
सौगंध अनुबंध के बँधन में,
विश्वास का ग़ुबार,
लू का उलाहना,
जड़ों को करती है और गहरी,
जीवन जीने की ललक में,
पनप जाते है ,
काँटे कोमल देह पर।