भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग्यारह दोहे / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=जगदीश व्योम
 
|रचनाकार=जगदीश व्योम
 
}}
 
}}
{{KKCatDohe}}
+
[[Category:दोहे]]
 
<poem>
 
<poem>
  
<poem>
 
 
आहत है संवेदना, खंडित है विश्वास।
 
आहत है संवेदना, खंडित है विश्वास।
 
जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास।।
 
जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास।।
पंक्ति 22: पंक्ति 21:
 
तब-तब होती सभ्यता, दूनी लहू-लुहान।।
 
तब-तब होती सभ्यता, दूनी लहू-लुहान।।
  
बौने कद के लोग हैं, पर्वत से अभिमान।
+
बौने कद के लोग हैं, पर्वत- से अभिमान।
 
जुगनू अब कहने लगे, खुद को भी दिनमान।।
 
जुगनू अब कहने लगे, खुद को भी दिनमान।।
  
पंक्ति 31: पंक्ति 30:
 
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार।।
 
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार।।
  
बदला बदला लग रहा, मंचों का व्यवहार।
+
बदला-बदला लग रहा, मंचों का व्यवहार।
 
जब से कवि करने लगे, कविता का व्यापार।।
 
जब से कवि करने लगे, कविता का व्यापार।।
  

21:26, 20 जुलाई 2023 के समय का अवतरण


आहत है संवेदना, खंडित है विश्वास।
जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास।।

कुछ अच्छा कुछ है बुरा, अपना ये परिवेश।
तुम्हें दिखाई दे रहा, बुरा समूचा देश।।

सब पर दोष लगा रहे, यही फ़कत अफ़सोस।
दोषी सब परिवेश है, या आँखों का दोष।।

सब की कमियाँ खोजते, फिरते हो चहुँ ओर।
कभी-कभी तो देख लो, मुड़कर अपनी ओर।।

जब-जब किसी अपात्र का, होता है सम्मान।
तब-तब होती सभ्यता, दूनी लहू-लुहान।।

बौने कद के लोग हैं, पर्वत- से अभिमान।
जुगनू अब कहने लगे, खुद को भी दिनमान।।

कविता निर्वासित हुई, कवियों पर प्रतिबंध।
बाँच रहे हैं लोग अब, लूले-लंगड़े छंद।।

कौन भला किससे कहे, कहना है बेकार।
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार।।

बदला-बदला लग रहा, मंचों का व्यवहार।
जब से कवि करने लगे, कविता का व्यापार।।

कविता के बाज़ार में, घसियारों की भीड़।
शब्द भटकते फिर रहे, भाव हुए बे-नीड़।।

मन की गहरी पीर को, भावों में लो घोल।
गीत अटारी में चुनो, शब्द-शब्द को तोल।।