भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मैं पंछी होता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} Category:...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
सभी बहुत भाते मुझको | सभी बहुत भाते मुझको | ||
बनकर मोर खूब नाचता । | बनकर मोर खूब नाचता । | ||
− | कोयल बनकर मैं | + | कोयल बनकर मैं गाता।। |
दुनिया बँटी हुई धर्म की, | दुनिया बँटी हुई धर्म की, | ||
पंक्ति 22: | पंक्ति 22: | ||
नफरत के अँधियारो में । | नफरत के अँधियारो में । | ||
घर-गली में गाँव - नगर में | घर-गली में गाँव - नगर में | ||
− | भाईचारा फैलाता | + | भाईचारा फैलाता ॥ |
अमन-चैन घिरे खतरों में | अमन-चैन घिरे खतरों में | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
रूप बदलते नए-नए । | रूप बदलते नए-नए । | ||
पीर हरूँ हर प्राणी की | पीर हरूँ हर प्राणी की | ||
− | सिर्फ़ यही मन में | + | सिर्फ़ यही मन में आता… |
'''-0-(8-6-87,नूतन जैन पत्रिका-मार्च 88, नवभारत 19-2-1995) | '''-0-(8-6-87,नूतन जैन पत्रिका-मार्च 88, नवभारत 19-2-1995) | ||
''' | ''' | ||
</poem> | </poem> |
12:38, 16 अगस्त 2023 के समय का अवतरण
अगर मैं भी पंछी होता
दूर देश को उड़ जाता।
इस पेड़ कभी उस पेड़ पर
मीठे- मीठे फल खाता ।।
ऊँचे पर्वत गहरी नदियाँ
रोक नहीं पाते मुझको,
गहरे बन और खेत हरे
सभी बहुत भाते मुझको
बनकर मोर खूब नाचता ।
कोयल बनकर मैं गाता।।
दुनिया बँटी हुई धर्म की,
भाषा की दीवारों
नफ़रत के बाजार सजे है
नफरत के अँधियारो में ।
घर-गली में गाँव - नगर में
भाईचारा फैलाता ॥
अमन-चैन घिरे खतरों में
प्रेम सरोवर सूख गए ।
इंसानों में छुपे जानवर
रूप बदलते नए-नए ।
पीर हरूँ हर प्राणी की
सिर्फ़ यही मन में आता…
-0-(8-6-87,नूतन जैन पत्रिका-मार्च 88, नवभारत 19-2-1995)