"मुझे मालूम है / मोना गुलाटी" के अवतरणों में अंतर
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15:06, 30 अगस्त 2023 के समय का अवतरण
काग़ज़ का टुकड़ा हो, फूल की पत्ती हो, हो घास का
तिनका :
ढेर सारी संवेदनाएँ तुमने सँजोई हैं
इनमें विगलित हो :
मन्द-मन्द मुस्कान-सी !
चाँद की शुभ्र चमक
ओढ़ ली है तुमने
अपने चेहरे पर :
इस दीप्त प्रकाश को समेट
मुग्ध हो मौन हो गया है कलरव :
नीरव निस्तब्धता के इस गुँजन को भी
तुमने अपनी मुठ्ठी में कसकर बाँध लिया है :
अँजुरी
बाँधे-बाँधे बीत
रहे हैं वर्ष - दर - वर्ष : शताब्दियाँ
दीमकों का ढेर हो गई हैं : काल के दग्ध-चक्र
को अब दो भी बेधने; नदी, आकाश व नक्षत्रों
में कहीं मुझे भी दो सिमटने;
मिटने !
मुझे मौन के मौन में
पैठना है और कभी
कभी हवा के उन्मत स्पर्श से
उठी तरंग-सा
छूना है
धरती की उठान को; तुम तक इतना ही
स्पर्श :
ऐसा भी हो :
और न भी
हो : मुझे
दरकने या रीतने से मिटना पसन्द है :
मुझे मालूम है
न होना; होने से बड़ी ताक़त है!
हंसना मत :
यदि समझ भी जाओ
शब्दों की नीरवता में धँसे
मौन के इस अहम् को
क्योंकि यहीं से होकर जाता है
रास्ता रहस्यमय अज्ञात में
वायवीय होता हुआ !