"शब्दों का ठेला / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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कुछ पर थोड़ी स्याही गिरी है | कुछ पर थोड़ी स्याही गिरी है | ||
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हाशिये पर कहीं | हाशिये पर कहीं | ||
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सूरतें बन गईं हैं | सूरतें बन गईं हैं | ||
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आदमी और जानवरों की एक साथ | आदमी और जानवरों की एक साथ | ||
कहीं धब्बे हैं गन्दे हाथों के | कहीं धब्बे हैं गन्दे हाथों के | ||
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कहीं किसी एक शब्द पर | कहीं किसी एक शब्द पर | ||
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इतनी बार स्याही फिरी है | इतनी बार स्याही फिरी है | ||
− | + | कि वह सलीब जैसा हो गया है । | |
− | कि वह सलीब जैसा हो गया | + | |
इस तरह | इस तरह | ||
− | + | मैं पचास पेज भर चुका हूँ । | |
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इसमें मेरा कसूर नहीं है | इसमें मेरा कसूर नहीं है | ||
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मैंने हमेशा कोशिश की | मैंने हमेशा कोशिश की | ||
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कि हाथ काँपे नहीं | कि हाथ काँपे नहीं | ||
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कुछ लिखकर काटना न पड़े | कुछ लिखकर काटना न पड़े | ||
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लेकिन अशक्त बीमार क्षणों में | लेकिन अशक्त बीमार क्षणों में | ||
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सफेद पृष्ठ काला दीखने लगा है | सफेद पृष्ठ काला दीखने लगा है | ||
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कुछ देर के लिए जैसे | कुछ देर के लिए जैसे | ||
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शब्दों का यह ठेला खींचना है | शब्दों का यह ठेला खींचना है | ||
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जिसमें वह सब है | जिसमें वह सब है | ||
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जिसे मैं तुममे से हर एक को | जिसे मैं तुममे से हर एक को | ||
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देना चाहता हूँ | देना चाहता हूँ | ||
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मजबूत है सीवन इस नोटबुक की | मजबूत है सीवन इस नोटबुक की | ||
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पसीने या आँसुओं से | पसीने या आँसुओं से | ||
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यदि शब्दों की तरह कभी | यदि शब्दों की तरह कभी | ||
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यह हाथ भी लुढ़क गया | यह हाथ भी लुढ़क गया | ||
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तो इस वीराने में | तो इस वीराने में | ||
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तुम इसके जिल्द की | तुम इसके जिल्द की | ||
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टिमटिमाती रोशनी टटोलते | टिमटिमाती रोशनी टटोलते | ||
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और जिसके पचास पेज | और जिसके पचास पेज | ||
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लेकिन प्रार्थना है | लेकिन प्रार्थना है | ||
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अपने झबरे जंगली कुत्ते मत लाना | अपने झबरे जंगली कुत्ते मत लाना | ||
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जो वह सूँघेगे | जो वह सूँघेगे | ||
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जो उन्हें सिखाया गया हो, | जो उन्हें सिखाया गया हो, | ||
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वह नहीं | वह नहीं | ||
+ | जो है । | ||
− | + | 15.09.1977 | |
− | + | (अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर) | |
− | ( अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर ) | + | </poem> |
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11:36, 16 सितम्बर 2023 के समय का अवतरण
मेरे पिता ने
मुझे एक नोटबुक दी
जिसके पचास पेज
मैं भर चुका हूँ ।
जितना लिखा था मैंने
उससे अधिक काटा है
कुछ पृष्ठ आधे कोरे छूट गए हैं
कुछ पर थोड़ी स्याही गिरी है
हाशिये पर कहीं
सूरतें बन गईं हैं
आदमी और जानवरों की एक साथ
कहीं धब्बे हैं गन्दे हाथों के
कहीं किसी एक शब्द पर
इतनी बार स्याही फिरी है
कि वह सलीब जैसा हो गया है ।
इस तरह
मैं पचास पेज भर चुका हूँ ।
इसमें मेरा कसूर नहीं है
मैंने हमेशा कोशिश की
कि हाथ काँपे नहीं
इबारत साफ़-सुथरी हो
कुछ लिखकर काटना न पड़े
लेकिन अशक्त बीमार क्षणों में
सफेद पृष्ठ काला दीखने लगा है
और शब्द सतरों से लुढ़क गए
कुछ देर के लिए जैसे
यात्रा रुक गई ।
अभी आगे पृष्ठ ख़ाली हैं
निचाट मैदान
या काले जंगल की तरह ।
बरफ़ गिर रही है ।
मुझे सतरों पर से उसे हटा-हटाकर
शब्दों का यह ठेला खींचना है
जिसमें वह सब है
जिसे मैं तुममे से हर एक को
देना चाहता हूँ
पर तुम्हारी बस्ती तक पहुँचू तो ।
मजबूत है सीवन इस नोटबुक की
पसीने या आँसुओं से
कुछ नहीं बिगड़ा !
यदि शब्दों की तरह कभी
यह हाथ भी लुढ़क गया
तो इस वीराने में
तुम इसके जिल्द की
टिमटिमाती रोशनी टटोलते
ठेले तक आना
और यह नोटबुक ले जाना
जो मेरे बाप ने मुझे दी थी
और जिसके पचास पेज
मैं भर चुका हूँ ।
लेकिन प्रार्थना है
अपने झबरे जंगली कुत्ते मत लाना
जो वह सूँघेगे
जो उन्हें सिखाया गया हो,
वह नहीं
जो है ।
15.09.1977
(अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर)