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− | + | फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली | |
+ | मासिक पत्रों के कवरों की, औ\' बन्दर से | ||
+ | किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से। | ||
+ | दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल | ||
+ | वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल | ||
− | + | सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन, | |
− | + | मानव के नाते उर में भरता अपनापन! | |
− | + | मानव के बालक है ये पासी के बच्चे | |
− | + | रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे! | |
− | + | अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर, | |
− | + | आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर! | |
− | + | न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर, | |
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− | + | वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर | |
− | मानव | + | कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर? |
− | मानव | + | निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन, |
− | + | मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन! | |
− | + | क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर | |
− | + | मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर । | |
− | + | जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय, | |
− | + | मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय । | |
− | + | जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित, | |
− | + | रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित ! | |
− | + | -मनुज प्रेम से जहाँ रह सके,-मावन ईश्वर ! | |
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02:08, 18 सितम्बर 2023 के समय का अवतरण
मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर !
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले,
मिट्टी के मटमैले पुतले, - पर फुर्तीले।
जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर-
सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली
मासिक पत्रों के कवरों की, औ\' बन्दर से
किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से।
दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल
वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल
सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन,
मानव के नाते उर में भरता अपनापन!
मानव के बालक है ये पासी के बच्चे
रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे!
अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर!
न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर,
जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर!
वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर?
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,
मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!
क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर
मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर ।
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय ।
जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित !
-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके,-मावन ईश्वर !
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर?