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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=कुमार मुकुल
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− | हम हमेशा शहरों में रहे<br>
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− | और गांवों की बावत सोचा किया<br>
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− | कभी मौका निकाल<br>
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− | गांव गए छुटि्टयों में<br>
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− | तो हमारी सोच को विस्तार मिला<br>
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− | पर मजबूरियां बराबर<br>
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− | हमें शहरों से बांधे रहीं<br><br>
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− | ये शहर थे<br>
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− | जो गांवों से बेजार थे<br>
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− | गांव बाजार<br>
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− | जिसके सीवानों पर<br>
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− | आ-आकर दम तोड़ देता था<br>
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− | जहां नदियां थीं<br>
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− | जो नदी घाटी परियोजनाओं में<br>
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− | बंधने से<br>
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− | बराबर इंकार करती थीं<br>
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− | वहां पहाड़ थे<br>
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− | जो नक्सलवादियों के पनाहगाह थे<br><br>
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− | गांव<br>
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− | जहां देश (देशज) शब्द का<br>
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− | जन्म हुआ था<br>
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− | जहां के लोग<br>
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− | यूं तो भोले थे<br>
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− | पर बाज-बखत <br>
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− | भालों में तब्दील हो जाते थे<br>
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− | गांव, जहां केन्द्रीय राजनीति की<br>
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− | गर्भनाल जुड़ी थी<br>
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− | जो थोड़ा लिखकर<br>
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− | ज्यादा समझने की मांग-करते थे<br><br>
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− | पर शहर था<br>
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− | कि इस तरह सोचने पर<br>
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− | हमेशा उसे एतराज रहा<br>
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− | कि ऐसे उसका तिलस्म टूटता था<br>
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− | वहां ऊचाइयां थीं<br>
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− | चकाचौंध थी<br>
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− | भागम-भाग थी<br>
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− | पर टिकना नहीं था कहीं<br>
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− | टिककर सोचना नहीं था<br>
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− | स्वावलंबन नहीं था वहां<br>
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− | हां, स्वतन्त्रता थी<br>
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− | पर सोचने की नहीं<br><br>
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− | बाधाएं<br>
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− | बहुत थीं वहां<br>
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− | इसीलिए स्वतन्त्रता थी<br>
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− | एक मूल्य की तरह<br>
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− | जिसे बराबर<br>
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− | आपको प्राप्त करना होता था<br>
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− | ईमान कम था<br>
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− | पर ईमानदारी थी<br>
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− | जिस पर ऑफिसरों का कब्जा था<br>
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− | जिधर झांकते भी<br>
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− | कांपते थे<br>
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− | दो टके के चपरासी<br><br>
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− | वहां न्यायालय थे<br>
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− | और थे जानकार बीहड़-बीहड़<br>
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− | न्याय प्रक्रिया के<br>
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− | शहर से झगड़ा सुलझाने<br>
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− | सब वहीं आते थे<br>
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− | और अपनी जर-जमीन गंवा<br>
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− | पाते थे न्याय<br><br>
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− | न्याय<br>
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− | जो बहुतों को<br>
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− | मजबूर कर देता<br>
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− | कि वे अपना गांव छोड़<br>
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− | शहर के सीमांतों पर बस जाएं<br>
| |
− | और सेवा करें<br>
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− | न्यायविदों के इस शहर की<br>
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− | पर ऐसा करते<br>
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− | वे नहीं जान रहे होते थे<br>
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− | कि जहां वे बस रहे हैं<br>
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− | वह जमीन न्याय की है<br>
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− | और प्रकारांतर से अन्याय था यह<br>
| |
− | और उन्हें कभी भी बेदखल कर<br>
| |
− | दंडित किया जा सकता था<br>
| |
− | और तब<br>
| |
− | जबकि उनके पास<br>
| |
− | कोई जमापूंजी नहीं होती थी<br>
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− | उनके लिए न्याय भी नहीं होता था<br><br>
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− |
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− | हां, न्याय के पास<br>
| |
− | दया होती थी थोड़ी<br>
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− | और दृष्टि भी<br>
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− | जिससे उनका इस तरह बसना वह<br>
| |
− | लंबे समय तक अनदेखा करता था<br>
| |
− | बदले में थोड़ा सा श्रम<br>
| |
− | करना होता था उन्हें<br>
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− | जिससे न्यायालय तक जाने का रास्ता<br>
| |
− | चौड़ा और पक्का होता जाता था<br>
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− | और न्याय प्रक्रिया के<br>
| |
− | अलंबरदारों के लिए<br>
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− | रेस्तरां-भवन-दफ्तर<br>
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− | तैयार होते जाते थे<br><br>
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− | अब उन आलीशान भवनों से<br>
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− | न्याय की तेज रफ्तार सफेद गाडि़यां<br>
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− | जब भागती थीं सड़कों पर<br>
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− | और अपने सीमांतो का<br>
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− | मुआयना करती थीं<br>
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− | तो वहां बसे वाशिन्दे<br>
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− | उन्हें धब्बों की तरह लगते थे<br>
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− | जिन्हें मिटाने की ताकीद वे<br>
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− | पुलिस-प्रशासन से करते<br>
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− | और लगे हाथ उसकी<br>
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− | मुनादी भी कर दी जाती थी<br>
| |
− | इस तरह<br>
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− | न्यायपूर्ण शहरों की सीमाएं<br>
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− | बार-बार उजाड़कर<br>
| |
− | पीछे धकेल दी जाती थीं<br>
| |
− | और बार-बार<br>
| |
− | न्याय की दया दृष्टि उन्हें आगे<br>
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− | नए सीमांतों पर टिकने की<br>
| |
− | मोहलत देती थी<br><br>
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− |
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− | शहर की जो न्याय प्रक्रिया थी<br>
| |
− | उसमें भी<br>
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− | सोचने-समझने की मनाही थी<br>
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− | इसीलिए आधी सदी से वे<br>
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− | नहीं सोच पा रहे थे<br>
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− | कि हिन्दोस्तां के<br>
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− | इन गर्म इलाकों में<br><br>
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− |
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− | सालों क्यूंकर<br>
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− | गर्म काला चोगा उठाए फिरते हैं<br>
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− | कि क्यों हिन्दी-उर्दू-तेलुगू-तमिल की<br>
| |
− | इस जमीन पर<br>
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− | अंग्रेजी-फारसी-संस्कृत<br>
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− | डटाए फिरते हैं<br><br>
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− |
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− | जैसे-शहर<br>
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− | एक तिलस्म की तरह था<br>
| |
− | उसकी न्याय प्रक्रिया भी<br>
| |
− | एक मिथक की तरह थी<br>
| |
− | और एक मिथक यह था<br>
| |
− | कि सोचने-विचारने के मामले में<br>
| |
− | अन्धी है वह<br>
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− | और जब-तक उसके कान के पास आकर<br>
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− | कोई अपनी फरियाद नहीं दुहराता<br>
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− | उसे कुछ मालूम नहीं पड़ता<br>
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− | इसके लिए उसके पास<br>
| |
− | ऊंची आवाज में विचरने वाले<br>
| |
− | हरकारे थे<br>
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− | जो सीमांत के बाशिंदों से<br>
| |
− | लंगड़ा संवाद बना पाते थे<br>
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− | ये हरकारे<br>
| |
− | न्यायप्रियता के ऐसे कायल थे<br>
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− | कि मुनादी के वक्त<br>
| |
− | आंखे मूंदकर<br>
| |
− | उसके आदेशों को प्रचारित करते थे<br>
| |
− | न्याय प्रक्रिया के<br>
| |
− | इस दोहरे अन्धेपन का लाभ<br>
| |
− | सीमान्त की डंवाडोल जमीन के<br>
| |
− | बाशिन्दे लेते थे<br>
| |
− | और उनकी खुसुर-पुसुर देखते-देखते<br>
| |
− | विचारधाराओं का रूप ले लेती थीं<br>
| |
− | और जब तक वे<br>
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− | अन्धे कानून को छू नहीं लेती थीं<br>
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− | उसे इसका इल्म तक नहीं होता था<br>
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− | कि उसकी नाक के नीचे<br>
| |
− | कैसी-कैसी विचारधाराओं ने <br>
| |
− | अपने तम्बू डाल रखे हैं<br>
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− | ऐसे में परेशान न्यायदंड<br>
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− | तुरत-फुरत<br>
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− | अपनी धाराओं की सेवाएं लेता था<br>
| |
− | मजेदार बात यह थी<br>
| |
− | कि न विचारधारा साफ दिखती थी<br>
| |
− | न धारा<br>
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− | स्थिति की गम्भीरता का पता<br>
| |
− | तब चलता था<br>
| |
− | जब दोनों टकराती थीं<br>
| |
− | और उसकी आवाज<br>
| |
− | न्याय के ऊंचे दंडों तक जाती थी<br><br>
| |
− |
| |
− | अब एक बार फिर<br>
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− | वही पुराना न्याय<br>
| |
− | दुहराया जाता था<br>
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− | जिसमें अच्छी कीमत अदाकर<br>
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− | विचारधाराओं को<br>
| |
− | थोड़ी मोहलत दी जाती थी<br>
| |
− | कि वे अपना तेवर सुधार सकें<br><br>
| |
− |
| |
− | न्यायदंड के आस-पास<br>
| |
− | उसकी सहूलियत के<br>
| |
− | सारे साजो-सामान भी थे<br>
| |
− | यथा जेलें थीं<br>
| |
− | आदर्श कारागृह<br>
| |
− | वहां बुद्ध की<br>
| |
− | ऊंची पत्थर की मूर्ति थी<br>
| |
− | क्योंकि वहीं वह सुरक्षित थी<br>
| |
− | और कारागृह के निवासियों को<br>
| |
− | उसकी छाया में शान्ति मिलती थी<br>
| |
− | जो मोबाइल-चैनल्स-सुरा-सुन्दरी<br>
| |
− | और मनोरम उत्तर-आधुनिक अपराधों का<br>
| |
− | सेवन करते<br>
| |
− | वहीं टेक लेते<br>
| |
− | बिरहा और चैता का गायन सुनते<br>
| |
− | लोकगीतों के रसिक सीएम, पीएम<br>
| |
− | अपने काफिलों के साथ<br>
| |
− | महीनों वहीं छुट्टियाँ मनाते थे<br>
| |
− | इसके लिए उन्हें न्यायदंड की<br>
| |
− | धाराओं की<br>
| |
− | सेवाएं लेनी पड़ती थीं<br>
| |
− | फिर जेलों से बाहर आते ही वे<br>
| |
− | जेल प्रशासन की मुस्तैदी की<br>
| |
− | समीक्षा करते थे<br>
| |
− | कारागृहों का यह रूप देखकर<br>
| |
− | उत्तर रामकथा वाचकों का मन भी<br>
| |
− | विचलित हो जाता था<br>
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− | और धन-बल-पशुओं को<br>
| |
− | गीता का उपदेश देने<br>
| |
− | वे भी वहां जा धमकते थे<br><br><br>
| |
− |
| |
− | न्यायदंड के आस-पास<br>
| |
− | बिखरे हुए थाने थे<br>
| |
− | जो पूंजी-प्रसूतों को रास आते थे<br>
| |
− | बावजूद इसके ये थाने<br>
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− | ढहती लोककला के अद्भुत नमूने थे<br>
| |
− | जिसकी दीवार के पलस्तर के भीतर से<br>
| |
− | लाल ईंटें<br>
| |
− | अपना बुरादा झारती रहती थीं<br>
| |
− | और रात में जिन्हें<br>
| |
− | लालटेन की नीम रोशनी रास आती थी<br>
| |
− | न्यायदंड की सुरक्षा के लिए तैनात<br>
| |
− | ये थाने थे<br>
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− | जिनकी जीपें <br>
| |
− | जनता के उस खास वर्ग की<br>
| |
− | सेवा में जाती थीं<br>
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− | जो कि उसमें पेट्रोल भरा पाती थीं<br>
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− | जहां वैसी मुट्ठी गर्म करने वाली<br>
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− | जनता नहीं थी<br>
| |
− | वहां पुलिस भी नहीं थी<br>
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− | इसीलिए विकल्प की तरह वहां<br>
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− | आतंकवादी थे<br><br>
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− | राजभाषा के सारे कवि<br>
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− | न्यायदंड के पास ही निवास करते थे<br>
| |
− | अपनी अटारियों से वे<br>
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− | पृथ्वी-पृथ्वी चिल्लाते थे<br>
| |
− | पर पृथ्वी से उनका साबका इतना ही था<br>
| |
− | जितनी कि उनके गमलों में मिट्टी थी<br>
| |
− | जिसे सुबह-शाम पानी देते<br>
| |
− | वे निहारते थे हसरत से<br><br>
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− |
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− | ये कवि थे<br>
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− | और काले बादलों को देख<br>
| |
− | इनका खून<br>
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− | भय से सफेद पड़ जाता था<br>
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− | ये कवि थे जो न्यायदंड से<br>
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− | अपना प्रेमपत्र बचाने की<br>
| |
− | याचना किया करते थे<br><br>
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− |
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− | और न्यायदंड प्रेमपत्र तो नहीं<br>
| |
− | उन कवियों को जरूर बचा लेता था<br><br>
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− |
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− | वह उन्हें कीमती जूते प्रदान करता था<br>
| |
− | जो न्यायदंड को देखते ही<br>
| |
− | खुशी से मचमचाने लगते थे<br>
| |
− | वह उनकी कमरों को<br>
| |
− | बल (लोच) प्रदान करता था<br>
| |
− | जिस पर कलाबाजी खाते वे<br>
| |
− | विचारों को<br>
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− | महामारी की तरह देखते थे<br>
| |
− | और खुद को उससे बचाने की जुगत<br>
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− | भिड़ाते रहते थे<br>
| |
− | इनका एक काम<br>
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− | जनता की कारगुजारियों से<br>
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− | न्यायदंड को आगाह करना भी था<br><br>
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− | इन शहरों में<br>
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− | सार्वभौम कला की तरह<br>
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− | तोंदें थीं<br>
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− | जिसके हिसाब से मोटर कम्पनियां<br>
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− | अपनी डिजाइनें बदलती रहती थीं<br>
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− | नतीजतन सड़कों पर<br>
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− | डब्बे की शक्लवाली<br>
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− | बूमों-मन्तरों-काटिज आदि गाडियाँ<br>
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− | बढ़ती जा रही थीं<br>
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− | यहां अपहरण और नरसंहार<br>
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− | एक उद्योग था<br>
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− | जिसकी रिर्पोटिंग को<br>
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− | पत्रकारिता कहते थे<br>
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− | और पत्रकार खबरें नहीं लिखते थे<br>
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− | विवस्त्र रक्तिम लाशें गींजते थे<br>
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− | उनकी जातियों का हिसाब लगाते थे<br>
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− | और जनता सुर्खियों में तब आती थी<br>
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− | जब वह गोलबन्द हो<br>
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− | रैलियों में हिस्सा लेने आ धमकती थी<br>
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− | राजनेताओं के बाद प्रेस<br>
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− | चििड़याखानों के जीवों की<br>
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− | गतिविधि बताना<br>
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− | ज्यादा जरूरी समझते थे<br>
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− | क्योंकि उसका नगर के पर्यावरण पर<br>
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− | सीधा असर पड़ता था<br><br>
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− |
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− | बन्दूक पर निशाना साधते-साधते<br>
| |
− | हत्यारों-अपहत्ताओं और <br>
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− | निजी सेनाओं के स्त्री-शिशु संहारकों की<br>
| |
− | एक आंख कमजोर हो गई थी<br>
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− | इसीलिए मीडिया में जब भी<br>
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− | उसकी तस्वीर उभरती थी<br>
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− | तो उसकी एक आंख और आधा चेहरा<br>
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− | गमछे से ढंका होता था<br><br>
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− |
| |
− | इस बारे में लोगों के<br>
| |
− | जुदा-जुदा खयालात थे<br>
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− | कि ऐसा वे पहचाने जाने के<br>
| |
− | भय से करते थे<br>
| |
− | पर जनमत की राय यह थी कि<br>
| |
− | खौफ को सार्वजनिक करने के लिए<br>
| |
− | वे ऐसा करते थे<br><br>
| |
− |
| |
− | बुद्ध के बाद गांधी<br>
| |
− | हत्यारों की पहली पसन्द थे<br>
| |
− | मीडिया पर इश्तेहारों में<br>
| |
− | हिंसा को वे मजबूरी बतलाते<br>
| |
− | और मीडियाकर (दलाल) उनमें<br>
| |
− | गांधी की अकूत सम्भावनाएं तलाशते<br>
| |
− | थकते नहीं थे !
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